रविवार, अप्रैल 28, 2019

बोधगया और गुरपा स्तूप(महाकस्सपा मंदिर) भ्रमण

नवंबर 2018 की एक सुबह हावड़ा राजधानी गया जंक्शन से निकलकर 110 किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ़्तार से सरपट भागी जा रही थी.आदतन मैं खिड़की से बाहर देख रहा था.कुछ दूर पहाड़ी की चोटी पर एक पीले रंग का मंदिर जैसा दिखा.जल्दी जल्दी में गूगल मैप में उस जगह का नाम देखा.जगह था-गुरपा.वो स्टेशन जिसे मेरी ट्रेन पार कर चुकी थी उसका नाम भी था-गुरपा.कुछ ही मिनटों में मैं बिहार सीमा से निकल कर झारखण्ड की सीमा में प्रवेश कर चुका था और वो सुदूर पहाड़ी पर चमचमाता मंदिर बार बार जेहन में आ रहा था.तभी तय किया कि कभी इधर आया तो यहाँ ज़रूर आऊंगा.कुछ दिन बाद गूगल में गुरपा सर्च किया लेकिन पता सिर्फ इतना चला कि वहां की हिन्दू मंदिर नहीं वरन एक बौद्ध स्तूप है  जिसे महाकस्सापा की याद में बनवाया गया था.

होली के शुभ अवसर पर गाँव जाना हुआ और वो भी पूरे दो सप्ताह के लिए.तय किया इस दौरान 2-3 दिनों के लिए बोधगया नालंदा और राजगीर घूमकर आऊंगा.फिर वो शुभ दिन भी आया.अपने इस लेख में बिहार की कुछ बुराइयां करूंगा.जिन मित्रों को बुराई पसंद नहीं वो यहीं पर विराम देने का कष्ट करें.

मेरे स्टेशन का नाम है भभुआ रोड .यहाँ से पटना इंटरसिटी चलती है सुबह 4 बजे जो कि गया से होकर जाती है.गया पहुँचने का टाइम 6:30 पर है.सुबह 4 बजे ट्रेन पकड़ने के लिए 2 बजे उठना पड़ता.इसलिए ट्रेन से चलने का आईडिया ड्राप कर दिया.कुछ लोगों से पूछताछ की तो पता चला पहले सासाराम जाओ,डेढ़ घंटे लगेंगे.सासाराम से गया की बहुत सारी बसें हैं जो ढाई तीन घंटे में गया पहुंचा देती हैं.तो प्लान कुछ इस तरह बना .8 बजे भभुआ से बस पकड़ेंगे.9:30 तक सासाराम.10 बजे सासाराम से चलकर 1 बजे दोपहर तक बोधगया.शाम तक बोधगया मंदिर और मोनेस्ट्री देखकर कर सुबह गुरपा के लिए चल देंगे.

बिहार की सड़के आजकल शानदार हैं इसलिए इस प्लान में कोई संदेह नहीं था.लेकिन भभुआ से चलने वाला ड्राइवर बहुत फुर्सत में था.जहाँ मन किया रोक लिया.कब चलेगा पता नहीं.मुझे छोड़कर सभी जन मस्त.किसी को कोई जल्दी नहीं.अपने एक सहयात्री से पूछा कब पहुंचेगी सासाराम.उनका जवाब था पहली बार जा रहे हैं का..चली है तो पहुँच ही जाएगी.और पान खाये अपने कलरफुल दांत चियार दिए.मतलब एक बेतक्कलुफी थी समय को लेकर सबमे.मैं अंदर ही अंदर कुढ़ रहा था.खैर बस ने 60 किलोमीटर की दूरी ढाई घंटे में तय की.10:30 बजे सासाराम बस स्टैंड पहुंचे.समूचा बस अड्डा कीचड से सना हुआ.बचपन में भी इस बस अड्डे को ऐसा ही देखा है.लोगों का कहना है सालों भर ऐसा ही रहता है.कुछ खाया पिया.गया की बस के बारे पूछा .किसी को कुछ नहीं मालूम.एक भलेमानुस ने बताया एजेंट को पता होगा.पूछ लीजिये.कुछ देर पश्चात् एजेंट जी प्रकट हुए.पूछा-गया कौन सी बस जाएगी.उन्होंने बड़े निर्विकार भाव से कहा-दो बसें जाती हैं लेकिन आज दोनों ही नहीं आयी हैं.उसने सलाह दी-औरंगाबाद चले जाइये.वहां से हर मिनट गया की बसें हैं.खैर मरता क्या न करता.पहली बार ट्रेन से न चलने को लेकर अपनी भारी गलती का एहसास हुआ.

औरंगाबाद की एक बस ढूंढी.कंडक्टर बोला 10:55 पर चलूँगा.बैठा और साथ ही पूछ भी लिया बस कब तक पहुँच जाएगी.48 किलोमीटर है.डेढ़ घण्टे.और हम 1:30 पर औरंगाबाद में थे.अब हम कुछ कुछ भाषा समझने लगे थे. जहाँ डेढ़ घंटे वहां 1 घंटा और जोड़ लो.वो क्षेपक की तरह है.यहाँ से गया 80 किलोमीटर है और हम समझ गए थे कि शाम से पहले गया नहीं पहुँच सकते.कुछ खा पी लेते हैं.तभी गया की बस दिखी.पूछा तो पता चला खुल रही है.बैठ लो नहीं तो अगली बस 2:35 पर है.साथ ही कंडक्टर ने ये भी कहा शेरघाटी खा लेना हम भी खाते हैं.फिर भी हम कुछ नमकीन चिप्स संतरे अंगूर वगैरह ले लिए और बस में बैठ गए.यह बस कहीं भी नहीं रुकी.सिर्फ सवारियों को उतारते चढ़ाते 4 बजे बोधगया पहुँच गयी.शेरघाटी आया और चला भी गया.बसों के खुलने की टाइमिंग में खासियत देखी.8 बजकर 3 मिनट.10:55,1:23,2:33.आपको यह महसूस होगा की यहाँ  के लोग मिनट मिनट का ख्याल रखते हैं.वो तो जब आप बैठ जायेंगे तब समझ आएगा की भाई टाइम तो बस कहने को है.यह टाइम सवारियों को चिढ़ाने के लिए है.

अपने इस बेहद थकाऊ और उबाऊ यात्रा के दौरान ही प्लान बनाया, आऊंगा बस से नहीं.राजगीर से बुद्ध पूर्णिमा एक्सप्रेस में टिकट उपलब्ध था.३ सीट तुरंत रिज़र्व की.

4:15 बजे बोधगया होटल पहुंचे.नूडल और मंचूरियन मंगाए.कपडे निकाले AC चलाया, फुल स्पीड में पंखा चलाया तब जाकर जान में जान आयी.थोड़ी देर में नूडल और मंचूरियन आ गया.खाया गया.होटल के वेटर से पूछा यहाँ मंदिर कब तक खुले रहते हैं.उसने बड़े प्यार से बताया.मुख्य मंदिर(महाबोधि मंदिर) तो 9 बजे रात तक खुला रहता है बाक़ी सब 5 बजे बंद हो जाते हैं.

खाने  पीने  और  रेस्ट  करने  के  बाद  टाइम  देखा  तो  6 बज  चुके  थे .सोचे  घूम  फिर  लिया  जाय .होटल  के  बिलकुल  पास में बुद्ध की 80 फ़ीट मूर्ती है.वहीं देखने निकले.जाकर पता चला गेट अभी बंद है सुबह 7 बजे खुलेगा.हमने बाहर से ही फोटो लिए और चल पड़े महाबोधि मंदिर की ओर.महाबोधि मंदिर को यहाँ मुख्य मंदिर कहते हैं और ये है भी.बाक़ी तो सभी देशों के मोनस्ट्रीज हैं.एक हिन्दू मंदिर भी बना दिया गया है जो सुन्दर है.

बोध गया एक इंटरनेशनल धार्मिक स्थल है और टूरिस्ट प्लेस भी.सर्वप्रथम यहाँ मात्र महाबोधि मंदिर ही था जहाँ बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ.मेरे लिए यह एक अबूझ पहेली है.ज्ञान कोई बटन तो है नहीं कि टीप दी और बत्ती जल पडी.लेकिन पढ़ते लिखते एक बात समझ आयी की यहीं पर सुजाता नमक युवती से मुलाकात हुई बुद्ध की.कहानी कुछ यूँ है कि -बुद्ध ज्ञान की खोज में हिन्दू धर्म के अनेक नियम कानूनों को अपना रहे थे.मसलन एक टांग पर तपस्या की, पत्ते खाकर कुछ बरस गुज़ारे, धुआं पिए..पानी में सांस रोकी, भजन किये. मंदिरों के मूर्तियों पर माथा टेका, बीवी बचे महल तो वो छोड़ ही चुके थे, मतलब कठिन तपस्या की. लेकिन कुछ हासिल नहीं हुआ. निराशा भी घर कर रही थी. तभी सुजाता नामक युवती मिली.सुजाता ने कहा - योगी वीणा के तार को ज़्यादा खींचोगे तो वह टूट जायेगा..और ढीला छोड़ दोगे तो बेसुरा हो जायेगा. इसलिए तार को उतना ही खींचो जिससे की अच्छा स्वर निकले.

बात गहरे पहुंची.यहीं से जीवन के मध्य मार्ग का उदय हुआ.सिद्धार्थ बुद्ध बने.बात समझ आई.और बौद्ध धर्म का सार भी यही है.बौद्ध धर्म एक नास्तिक धर्म है.मूर्ति पूजा के खंडन और पण्डे पुरोहितों के पाखंड का विरोध इसका मूल था.लेकिन दुर्भाग्य यह है की पूरे विश्व में सबसे ज़्यादा मूर्तियां बुद्ध की बनीं..

महाबोधि मंदिर 9 बजे रात तक खुला रहता है. हम भी गए..अगर आपको मुख्य गर्भ गृह नहीं जाना तो जूते पहन सकते हैं.कैमरा ले जाना मना नहीं है.मोबाइल ले जाना मना है.इन सभी सामानों को रखने की मुफ्त व्यवस्था है.हम भी जूते रखे मोबाइल जमा किये और चल पड़े मंदिर. मंदिर को भव्य नहीं कहूंगा. दरअसल मंदिर की भव्यता के लिए किसी को यहाँ आना भी नहीं चाहिए.अगर आपको एकदम शांति का अनुभव करना हो तब आप मंदिर आइये.यहाँ जगह बौद्ध भिक्षु तपस्या करते मिल जायेंगे. हम गर्भ गृह भी गए.छोटा सा है और किसी को भी वहां ठहरने की अनुमति नहीं होती. जाइये दर्शन कीजिये और आगे  बढिये. हमने वो बोधि वृक्ष भी देखा.मूलतः यह वो वृक्ष नहीं है जहाँ बुद्ध बैठा करते थे. वो तो कबका सूख गया.कालांतर में बुद्ध अनुयायियों ने उस पीपल के वृक्ष की जड़ें लेकर कई देशों में गए और और उनसे अलग अलग बोधि वृक्ष बने. वर्तमान बोधि वृक्ष श्रीलंका से लाया गया था जो अभी भी जीवित है.

मुख्य मंदिर भ्रमण के बाद हम होटल आए.रास्ते में ही एक रेस्टोरेंट में खाना खाया. बिहार की मशहूर लिट्टी चोखा ढूंढते रह गए नहीं मिला.सो गए इस प्लान के साथ कि सुबह सभी मोनेस्ट्री देखेंगे और गुरपा की ओर निकल पड़ेंगे.

गया मच्छरों का चिर निवास है.यहाँ भांति भांति के चित्र विचित्र टाइप के मच्छर पाए जाते हैं.होटल वाले ने हमें आल आउट दे रखा था.नींद अच्छी आयी और देर से उठे.नहाते धोते नाश्ता करते करते 9 बज गया.हमारी सवारी चली बोधगया घूमने. लगभग देशों के मोनस्ट्रीज देखे और म्यूज़ियम भी.ज़्यादा  नहीं लिखूंगा.कुछ चित्र देखिये.

गौतम बुद्ध की 80 फ़ीट प्रतिमा

गौतम बुद्ध की 80 फ़ीट प्रतिमा का प्रांगण 

अब कुछ मोनस्ट्रीज.नाम नहीं लिख रहा हूँ.जो अच्छा लगा यहाँ लगा रहा हूँ. 









बोधगया पार्क से महाबोधि मंदिर. वर्तमान मंदिर 1880 का बना है.इससे पुराना मंदिर नष्ट हो गया था.पुराने और नए मंदिर के विशेष जानकारी वहां के म्यूज़ियम रखी गयी है.    


कहीं इधर उधर  


बोधगया में ही 12 बज गए.एक टैक्सी वाले से बात की .गुरपा जाना है उसके बाद माउंटेन मैन मांझी जी के गाँव और फिर राजगीर.प्लान ये था कि राजगीर किसी होटल में रुक जायेंगे.और सुबह राजगीर नालंदा घूमकर रात की ट्रेन से भभुआ पहुँच जायेंगे.बोधगया से गुरपा 50 किलोमीटर है.और अनुमानित समय डेढ़ घंटे का था.टैक्सी वाला राज़ी हो गया. और हम होटल से सामान लेकर हम चल पड़े गुरपा की ओर.भूख भी लग रही थी.


चलिए पहले गुरपा के बारे में संक्षेप में बता दें.संक्षेप में इसलिए क्यूंकि मुझे खुद ही ज़्यादा नहीं पता.गुरपा एक गाँव है.पास में पहाड़ी है जिसका नाम गुरुपाद गिरि है.शायद इसीलिए इस जगह का नाम गुरूपा पड़ा होगा.गुरपा रेलवे स्टेशन भी है और यहाँ मात्र 4 गाड़ियां रूकती हैं.एक एक्सप्रेस बाकी सभी पैसेंजर.गुरुपाद गिरि पर महकस्सपा का तपस्या स्थल है.यहीं पर महकस्सपा ने निर्वाण लिया था.महकस्सपा बुद्ध के प्रमुख शिष्यों में से एक थे.बौद्ध धर्म को ठीक तरीके से स्थापित करने में इनका भी अहम् योगदान रहा.इसीलिए बुद्ध धर्म को मानने वालो में इनका एक प्रमुख नाम है.गुरपा की चढ़ाई एकदम खड़ी है.नीचे से ऊपर तक पक्की सीढ़ियां बनी हुई हैं.स्थानीय लोगों के अनुसार 1700 सीढ़ियां है.आप अंदाज़ लगाइये एक बिल्डिंग जिसने 1700 सीढ़ियां हों आप चढ़े जा रहे हैं.


यहाँ पर मुख्यतया विदेशी जन ही आते हैं.हम जैसे एक्के दुक्के कभी कभार पहुँच जाते हैं. पहाड़ी पर एक स्तूप है और महकस्सपा का छोटा सा मंदिर.यही स्तूप रेलवे लाइन से मुझे धनबाद जाते वक़्त दिखा था.


तारीख थी 27 मार्च. और हम लगभग 12;30 बजे बोधगया से गुरपा की ओर कूच कर गए.प्लान था 2 बजे गुरपा पहुँच जायेंगे.आधे घंटे में 1700 सीढ़ियां चढ़ जायेंगे.आधा घंटा बैठेंगे.3 बजे वापसी.साढ़े तीन बजे नीचे. 5 बजे तक मांझी गाँव गहलोर..और इसके आगे...राजगीर..


भूख लग रही थी.ड्राइवर से बोला भाई कहीं ढाबा दिख जाए तो रोक दियो.बोला सर इस रास्ते में तो कोई  ढाबा नहीं है.हाँ गुरपा स्टेशन पर चाय समोसे की दुकान मिल जाएगी.शायद लिट्टी भी मिल जाय.हमने कहा चलो लेकिन कहीं ढाबा दिखे तो रोकना.हमारी खुशकिस्मती थी की एक ढाबा दिखा और हम दबाकर  खाना खा लिए.आगे बढे और 3 बजे तक गुरपा पहुंचे.स्टेशन  से ही जंगल शुरू हो जाता है.एक किलोमीटर के बाद एक दम से सीढ़ियां शुरू हो जाती हैं.अच्छा किया जो खाना खा लिया वरना गुरपा स्टेशन पर सिर्फ चाय समोसा ही था.गरमी भीषण थी.हम सीढ़ियां चढ़ना शुरू  किये.ऊंचाई देखी 200 मीटर.और हाँ जब हम स्टेशन से आगे बढे तभी एक नौजवान हमारे साथ साथ हो लिए.उन्होंने अपना नाम राजीव मिश्रा बताया साथ ही ये भी बताया कि मैं "ब्राह्मण" हूँ और महकस्सपा के मंदिर का केयरटेकर हूँ.उनके इस "ब्राह्मण" पर जोर देना मुझे रास नहीं आया.माथा ठनका.कहाँ से आ गया ये. हालाँकि मेरा माथा ठनकना नाजायज़ नहीं था.उन्होंने अपना चरित्र लौटते समाया दिखा दिया था.


चलिए अब सीढ़ियों पर चलते हैं.पानी पीते पीते हाँफते हुए आगे बढे.एक जगह देखा ऊंचाई लगभग 300 मीटर.मेरी हालत ख़राब.पेट में प्रेशर बन गया. उल्टी जैसा भी लगने लगा.पानी पीने का भी मन नहीं..गरमी ऊपर से. शर्ट निकाले और सीढ़ियों पर ही एक पेड़ के नीचे लेट गया.पीछे पीछे बच्चे और श्रीमती जी भी आ रहे थे.बच्चों का तो नहीं लेकिन मैडम की हालत ख़राब लग रही थी. उनसे मैंने कहा भाई तुम लोग चल सको तो चलो.मैं नहीं आ रहा.तबियत बिगड़ गयी है.नहीं आ सकता.उन्होंने कहा शायद ज़्यादा खा लिए हो इसलिए दिक्कत ज़्यादा हो रही है.वो लोग आगे बढे.15 मिनट तक लेता रहा.फिर लगा अब हालत जाने लायक हो गयी है.आगे बढे फिर थक गए.जियो  का नेटवर्क था.फ़ोन लगाया श्रीमती से पूछा कहाँ तक पहुंचे.बोली थोड़ी दूर पर बैठे हैं आ जाओ.नियम बनाया.50 सीढ़ियां चढूँगा और 5 मिनट का आराम.ऐसे  करते करते एक जगह पहुंचा जहाँ ढेर रंग बिरंगी झंडियां लगी हुई थी.फिर फ़ोन किया.बेटे ने कहा अब आ ही  चुके हैं.आगे सीढ़ियों पर एकदम अँधेरा है.मोबाइल टॉर्च जला लेना.आगे बढ़ा.यकीन मानिये लगभग 50 मीटर तक सीढ़ियां दो खड़े पत्थरों के बीच में ऐसी संकरी हैं कि एक साथ दो आदमी नहीं चल सकते.कोई सामने से आ जाय तो एक को पीछे ही हटना पड़ेगा.हांफते हुए हम 5 बजे के करीब पहुंचे महाकस्सपा मंदिर.


कभी आपको असीम शांति का अनुभव करना हो तो यहाँ आइये.अद्भुत जगह है.यहाँ सुबह आइये और 2 घंटे कम से कम बैठिये.शानदार जबरदस्त..अलौकिक सुख.हमारे पास टाइम नहीं था.अँधेरा होने से पहले नीचे उतरना था.स्तूप गए.कुछ फोटो खिंचाए.ऊंचाई देखी - 480 मीटर.मतलब हमलोग 1700 सीढ़ियों के साथ 280 मीटर चढ़ भी चुके हैं वो भी भयंकर गरमी में. यहाँ पर लोगों ने छोटे छोटे 3 मंदिर भी बनाये हैं.ब्राह्मण देवता का ज़्यादा रुझान उन मंदिरों में ज़्यादा था.महाकस्सपा में कम.लौटने लगे तो देव ने अपना रंग दिखाया.आए हैं तो दान करके जाइये.मैंने 100 रुपये दिए.देव बिगड़ गए. आपके साथ आया सिर्फ 100 रुपये..मैंने कहा भाई  तुझे बुलाया कौन..तू खुद ही आया..फिर थोड़ा डर भी लगा..इस जंगल झाड़ में इसके सिवा यहाँ और तो कोई है नहीं .कुछ गड़बड़ न करे.बड़ी मुश्किल से 100 रुपये और देकर पीछा छुड़ाया.उसके बाद ब्राह्मण देवता फुर्र हो गए.हम भी तेज़ी से उतरे.चढ़ने में 2 घंटे लगे और हालत ख़राब हो गयी.लेकिन उतरने  में सिर्फ 25 मिनट लगे.गाड़ीवाला परेशान था.समोसे लिए.बोतल में पानी भरे.और 5:45 पर चल पड़े गुरपा से माउंटेन मैन मांझी जी के गाँव गहलौर के ओर.


काम की बात:-गुरपा अगर सस्ते में आना हो तो सुबह वाली पैसेंजर पकड़िए.सुबह में पहाड़ी चढ़िये.और कम से कम 2 घंटे महकस्सपा मंदिर के पास गुजारिये.खाना और पानी लेकर जाइये वहां कुछ नहीं है.इस तरह भयानक गरमी से भी बचा जा सकता है.दोपहर 12:45 पर पुनः वापसी की पैसेंजर(63553) पकड़िए और गया आ जाइये.

गुरपा के रास्ते में.पीछे देखिये सूखी पहाड़ियां...  

गुरपा स्टेशन

स्टेशन से गुरपा स्तूप दिखता है


टोली चली स्तूप की ओर.नीले टी शर्ट में राजीव मिश्रा जी(ब्राह्मण) है.

और रही सीढ़ियों की शुरुआत(Height-200 m)


मंज़िल अब निकट ही है


घुप्प अँधेरी सीढ़ियां

महाकस्सपा मंदिर

और पहुंचे स्तूप(ऊंचाई 480 मीटर)


और लौटते वक़्त एक बार फिर
गुरपा स्टेशन रुकने वाली गाड़ियां

गया से गुरपा
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गुरपा से गया 
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अगला भाग - नालंदा के खंडहर और विश्व शान्ति स्तूप राजगीर

रविवार, दिसंबर 30, 2018

जंजैहली शिकारी माता यात्रा



दिनांक : 22.12.2018
समय    : शाम 05:05 

एक बड़ा सा ट्रैवेलर बैग ढेर सारे कपड़ों से भरा जा चुका था.एक हैंडबैग में खाने की सामग्री से लैश होकर भोपाल के लिए कूच करने ही वाले थे कि एक धमाकेदार मैसेज से मोबाइल की स्क्रीन चमकी.भोपाल जाने के लिए लिया गया वेटिंग टिकट वेटिंग ही रह गया था और श्रीमती जी का भोपाल जाना स्थगित.
  • हालाँकि पता नहीं क्यों चेहरे पर मायूसी के बजाय मुस्कान बरकरार थी.ऐसा अक्सर नहीं होता.पत्नियों के लिए मायका हमेशा से अति विशिष्ट होता है.आइये कुछ मजेदार बात समझते हैं.थोड़ा गौर कीजियेगा.हर पत्नी के लिए उसका मायका उसके पति के घर से कई गुना बेहतर होता है.मसलन मेरी मां को भी मेरे नानी गाँव की हर चीज़ हमारे यहाँ से बेहतर लगती है.हालाँकि हमें ऐसा बिलकुल नहीं लगता.मतलब पीढ़ी दर पीढ़ी पीछे जांय तो मायका बेहतर और बेहतर और बेहतर ..अब दूसरा पक्ष लेते हैं.बतौर जावेद अख्तर, पति को हमेशा उसके माँ के हाथ का खाना पत्नी से बेहतर लगता है.यानि पीढ़ी दर पीढ़ी खाने की क़्वालिटी ख़राब और ख़राब और ख़राब..आनेवाली पीढ़ी और ख़राब खाना खायेगी क्योंकि मां से अच्छा तो कोई बना ही नहीं सकता..चलो जी ये हुई मजाक की बात.अब आगे बढ़ते हैं.

गुरुवार, दिसंबर 27, 2018

गढ़ मुक्तेश्वर के मेले में

कई बार ऐसा महसूस होता है कि मैं एक अतीतजीवी व्यक्तिहूँ.इसलिए कुछ लिखता हूँ तो गाहे बगाहे अतीत आ ही जाता है.मेरे गाँव के पास ही एक गाँव है - करजांव.वहां प्रति वर्ष एक मेला लगता है.मेला कितना पुराना है ये तो नहीं पता लेकिन जब मैं 6-7 साल का था तब गया था.उस समय मेला का समुचित परिभाषा हमारी पाठ्य पुस्तक का वो पन्ना था जिसने राम, श्याम, कमल और सलमा मेला देखने जाते हैं, जलेबियाँ खाते हैं, बांसुरी और गुड़िया खरीदते हैं और नाचतेकूदते अपने रहीम चाचा के साथ शाम तक वापस घर आजाते हैं.
बाबूजी शहर रहते थे.गाँव में मेरी मां, आजी(दादी) और बाबा(दादा) रहते थे.आजी से मैंने आग्रह किया मुझे भी मेला देखने जाना है.आजी ने कहा-कहाँ इतना दूर जायेगा, मेले में"भुला" जायेगा."नहीं-मुझे जाना है".फिर बाल हठ के सामने उन्होंने घुटने टेक दिए. अब समस्या ये थी कि मैं जाऊं किसके साथ.

रविवार, अक्टूबर 21, 2018

चकराता ट्रिप - टाइगर फॉल, गौराघाटी, पांडव गुफा, लाखामंडल, कृष्णा फॉल और वापसी

इस यात्रा को शुरू से पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें

हमारी यात्रा का आखिरी दिन था.2 अक्टूबर, गाँधी/शास्त्री जयंती, मंगलवार. और पहले से तय था कि बस 7 बजे चलेगी.लेकिन पकौड़ियाँ खाते खाते कुछ समय ज़्यादा हो गया और हम चल पाए 7:45 पर. टाइगर लॉज की विशेषता यह है कि यह एक बेहद शानदार लोकेशन पर है. सनराइज देखने के लिए आपको कहीं जाना नहीं पड़ेगा.टाइगर फॉल जाने की पगडण्डी भी ठीक सामने है.तो कुछ फोटोज हम सनराइज के खींचे.नीरज ने हमें पहले ही बताया था कि हम लाखामंडल कम रुकेंगे.उसके रास्ते का आनंद लेंगे और जमकर फोटोग्राफी करेंगे.हम चले और बस थोड़ी ही दूर पर शानदार प्राकृतिक गेंदे का बागान सड़क के दोनों तरफ.अहा..इन नज़ारों के बारे लिखना तो नीरज गुरु जैसे लेखकों का काम है हम तो बस उस अनुभूति से ही आनंदित थे.वहां हम चित्र विचित्र मुद्राओं में फोटोग्राफी किये.

मंगलवार, अक्टूबर 16, 2018

चकराता ट्रिप - चकराता और टाइगर फॉल


अपनी इस चकराता भ्रमण की चरचा जब मैंने एक सहकर्मी से की तो उन्होंने कहा, अरे आप तो सारा जौनसार घूम कर गए. मेरे लिए यह एक नया शब्द था. जब पूछताछ की तो पता चला कि चकराता को दो हिस्सों में बांटा जाता है-जौनसार और बावर. जौनसार निचला हिस्सा है और बावर ऊपरी हिस्सा. चकराता एक आर्मी कैंटोनमेंट एरिया है.यहाँ अभी भी रूल्स रेगुलेशंस आर्मी से नियंत्रित हैं.नया मकान बनाने की लगभग मनाही है.मकान में बदलाव के लिए भी आर्मी के परमिशन की ज़रुरत पड़ती है. लगभग लैंसडाउन की तरह. चकराता से आगे का एरिया 2-3 साल पहले तक एकल दिशा मार्ग था.मतलब एक टाइम पर एक ही दिशा में गाड़ियां चलेंगी.कालसी के पास एक गेट था जो सात बजे सुबह खुलता था.इस गेट को हर ढाई घंटे पर खोला जाता था.और भी पाबंदियां थीं.कालसी से सहिया 18 किलोमीटर है और हर गाडी को इसे 1 घंटे में ही पार करना होता था.मतलब अगर आप चले 7 बजे और सहिया पहुंचे 7:30 बजे.आपको सहिया में रुके रहना पड़ता था 8 बजे तक.कुल मिलाकर आपकी ऐसी की तैसी.हालाँकि यह कवायद रोड काफी पतली होने के कारन था.अब सड़क अच्छी है और इस तीन पांच की ज़रुरत नहीं. शायद हुक्मरानों को इस बात का अंततः पता चला गया और यह व्यवस्था ख़तम की गयी.अब कभी भी आओ कभी भी जाओ.

सोमवार, अक्टूबर 15, 2018

चकराता ट्रिप - लोखंडी टिब्बा, मोइला टॉप, बुधेर गुफा























आज का ब्लॉग एक फोटो अल्बम है.30 तारीख की सुबह अपनी आदत के हिसाब से जल्दी उठ गए थे और नहा धोकर तैयार.जब तक बीवी बच्चे भी तैयार होते हैं तब तक घूम आता हूँ बाहर.होटल के ठीक सामने एक बड़ा सा टीला जैसा था.उसपर चढ़ आया.उससे भी ऊंची जगह दिख रही थी वहां नहीं गया.थोड़ी देर में श्रीमती जी और बच्चे जब तैयार होकर आये तब और ऊपर जाने का मन बनाया.बालक तो ज़्यादा ऊपर नहीं गए लेकिन मैं ऊपर गया.वहां से पता चला उससे भी ऊपर एक चोटी जैसा है.नहीं गया.दरअसल वो पूरी धार है जो होटल से कम ही दिखती है.वहीँ पर बेटी को ठण्ड लगने लगी.कुछ फोटोग्राफ लिए और फटाफट नीचे आये.बेटी के पैर में तेल लगाकर खूब रगड़े,कम्बल ओढ़ाए. डर था कहीं ठण्ड लग जाय नहीं तो सारी ट्रिप का सत्यानाश.लेकिन ये सिर्फ बुरे ख़याल ही रहे.थोड़ी ही देर में बेटी चंगी हो चुकी थी.पराठे खाये गए.आज की योजना थी मोइला टॉप और बुधेर केव जाने की.

गुरुवार, अक्टूबर 11, 2018

चकराता ट्रिप - देहरादून, उदय झा जी, डाकपत्थर बराज, लोखंडी आगमन

हमारे घूमगुरु नीरज के साथ की गयी यात्राओं का हासिल कुछ विशिष्ट होता है. मसलन रैथल यात्रा की बात करूं तो एक एक पल हासिल ही था. मैं एक पर्यटक कैटेगरी का व्यक्ति हूँ. शिमला मनाली नैनीताल जैसे जगहों  से इतर किसी भी पर्वतीय जगह पर नहीं गया था. रैथल एक शानदार यात्रा रही जिसमे एक हिमालयी गाँव के अलावा कुछ अद्भुत(जो बाद में पता चला) महामानवों से मुलाक़ात हुयी. गंगोत्रीयात्रा भी यादगार रही जिसमे नेलांग, सातताल ट्रेक के दौरान साग भात और मार्कण्डेय मंदिर भूलने वाले पल हैं. इसी कड़ी में चकराता यात्रा भी विशिष्ट है.

"रामचंद्र कह गए सिया से, ऐसा कलयुग आएगा |
दोनों तरफ से मैसेज होंगे, मिलने कोई नहीं आएगा ||"

यह मैसेज भेजा था उदय झा जी ने जो हमारी रैथल यात्रा के सहयात्री थे. जिन्हे मैंने उनके घर पर मिलने का वादा कर चुका था. मैं बहुत जल्दी घुलने मिलने वाला व्यक्ति नहीं हूँ. रैथल यात्रा भी महज दो दिनों की थी. जिसमे से सिर्फ एक दिन ही झा जी का साथ मिला.