बुधवार, दिसंबर 21, 2016

साबरमती आश्रम

इस यात्रा की भूमिका मैं पहले ही साझा कर चुका हूँ. 
12  दिसंबर को मेरी शादी की सालगिरह है इस साल इस गिरह ने 10 साल सफलतापूर्वक पूरा किया.
शादी के कई पर्यायवाची हैं-ब्याह,विवाह,दाम्पत्य सूत्र बंधन,परिणय सूत्र बंधन, पाणिग्रहण, गठबंधन और हमारे भोजपुरी में "बिआह". ब्याह का अर्थ समझ नहीं आता.बाकी जिसमे भी बंधन है वो शब्द मुझे पसंद नहीं.दरअसल मानव स्वभाव से स्वतंत्र है.बंधन किसे पसंद होगा.मेरी समझ में शादी वही है जिसमे मियां बीवी दोनों स्वतंत्रता का अनुभव करें.बंधन का नहीं. पाणिग्रहण का मतलब एक दूसरे का हाथ थामना है, तो ठीक है. 

बाकी "विवाह" और "बिआह" का अर्थ हमारे एक संस्कृत शिक्षक ने बखूबी समझाया था.आप भी समझिये और हंसिये."विवाह" वह है जिसमे लोग 'वाह वाह' करें."बिआह" वह है जिसमे लोग 'आह आह' करें.आजकल ज़्यादा "बिआह" ही होता है. तो भाई अपने गुरूजी की ये परिभाषा हमेशा याद रहती है.

10 साल को याद करने हम साबरमती आश्रम सुबह 9 :30 बजे पहुँच चुके थे.उसके पहले बता दूँ कि होटल हम 8 :30 बजे छोड़ चुके थे.ओला बुक किये और साबरमती आश्रम पहुंचे. साबरमती एक नदी है जिसके किनारे अहमदाबाद शहर है और यह आश्रम भी.प्रशासन की तारीफ़ करनी होगी कि यह पूरी सम्पदा अभी आश्रम जैसी लगती है.इसके मूल बनावट में छेड़ छाड़ कम से कम की गयी है.यहाँ आकर आप अपनी आवाज़ सुनने में सक्षम होंगे. यहाँ आकर गौरैया की चीं चीं, कोयल की कूक,कौआ का काँव काँव,पिहू पिहू की मधुर ध्वनि,अनेक तोते, बंदरों की किट किट से लगाव हो जाना लाज़िमी है.अनेक पक्षियों का कलरव मंत्रमुग्ध कर देता है.

आगे की कहानी चित्रों की ज़ुबानी.



गाँधी आश्रम का मुख्य दरवाज़ा, फोटो साफ़ नहीं आ पाया
यह पत्र पेटिका जो आश्रम के गेट पर लगी है.लिखा है-
"इस पत्र पेटी पर डाले गए पत्रों पर 'चरखा' की विशेष मोहर लगाई जाएगी"   
Gandhi Ashram site map
यहाँ एक म्यूजियम है जिसमे चित्रों और कुछ असल दस्तावेज़ों के माध्यम से गाँधी की जीवन यात्रा समझाई गयी है.
गाँधी जी के तीन बंदरों के साथ बिटिया रानी  


चित्र प्रदर्शनी के शुरुआत में - गाँधी और कस्तूरबा


चित्र प्रदर्शनी


चित्र प्रदर्शनी-दांडी यात्रा-नमक क़ानून तोड़ते गाँधी जी

कुछ चित्र आश्रम की सुंदरता के


सेल्फी
साबरमती नदी.लेकिन सभी नदियों की तरह यहाँ भी नदी गंदी है.
चुन्नू भाई को जगह बहुत पसंद आयी
 गाँधी जी का आश्रम.जहाँ वो मेहमानों से मिलते थे.
इस ईमारत में कस्तूरबा का कमरा, किचेन और गेस्ट रूम भी है.
चरखा चलाने का demo भी यहाँ होता है.

 म्यूजियम से लिए गए कुछ विचार जिनकी वजह से गांधीजी के प्रति मेरा झुकाव हुआ

गाँधी का लोकतंत्र
"मेरी लोकतंत्र की कल्पना ऐसी है कि उसमे कमज़ोर से कमज़ोर को उतना ही मौका मिलना चाहिए जितना कि समर्थ को....आजकल सारे विश्व में  कोई भी देश आश्रयदाता की नज़र के बिना निर्बलों को देखता ही नहीं....पश्चिम के लोकतंत्र का जो स्वरुप आज विद्यमान है वह...हल्का फासीवाद जैसा है....सच्चा लोकतंत्र केंद्र में बैठकर राज्य चलाने वाले बीस इंसान नहीं चला सकते, वह तो प्रत्येक गांव के हर इंसान को चलाना पड़ेगा."

आर्थिक न्याय
"इस देश की और सारे विश्व की आर्थिक रचना ऐसी होनी चाहिए कि जिसमे एक भी प्राणी अन्न वस्त्र के अभाव से दुखी न हो ...जैसे कि हवा और पानी पर सबका समान हक़ है या होना चाहिए ...इन पर किसी व्यक्ति ,देश या समूह का एकाधिकार होना अन्याय है" 

असहयोग
"असहयोग एक बेजोड़ और जबरदस्त हथियार है...असहयोग कोई निष्क्रिय अवस्था नहीं है...असहयोग का मूल, द्वेष और बैर नहीं है...एक प्रकार का जिहाद या धर्मयुद्ध है...असहयोग का अर्थ है स्वरक्षण की शिक्षा...वह अपने आपमें एक लक्ष्य है."
आजकल, आप ठीक से समझेंगे तो "असहयोग", "देशद्रोह" जैसा प्रतीत होगा.


सविनय अवज्ञा
"सविनय अवज्ञा विनयहीन या अनैतिक अवज्ञा से उलटी चीज़ है.इसलिए सविनय अवज्ञा उन्ही कानूनों की हो सकती है जो नीति से समर्थित न हों....वह दूसरों के अधिकारों पर आक्रमण नहीं करेगा....इसलिए सविनय अवज्ञा करने वाला हेतुओं का आरोपण नहीं करेगा,बल्कि प्रत्येक प्रश्न की गुण दोष के आधार पर ही जांच करेगा.सविनय क़ानून भंग प्रेम और भाईचारे पर आधारित है." 










आश्रम दर्शन करते करते 12 बज चुके थे. वहां एक बुक शॉप भी है.हमने भी कुछ किताबें खरीदीं.कुछ श्रीमती जी ने भी.बालक ने एक चरखा लिया.इस तरह हमारी साबरमती आश्रम यात्रा संपन्न हुयी.उसके बाद हम मुकुल के घर गए.वहां गप शप, खाना पीना हुआ.चार बजे के आसपास हम लाल दरवाज़ा पहुंचे खाखरा खरीदने लेकिन ज़्यादातर दुकाने बंद थीं.कोई पर्व था मुसलमान भाइयों का शायद इसलिए.मुकुल ने बताया कि इंदुबेन खाखरावाला एक चेन है यहाँ .वहां से ले सकते हो.इन्टरनेट का सहारा लिया,दुकान ढूंढी.खाखरा लिया और 4 :40 तक रेलवे स्टेशन.5 :40 पर नयी दिल्ली राजधानी और सुबह 7 बजे गुडगाँव...

चुन्नू भाई का चरखा ..इसके बिना गाँधी दर्शन अधूरा रहेगा 
गांधीजी का चरखा महज सूत कातने का यन्त्र ही नहीं है,यह आज़ादी का प्रतीक है.गांधीजी की आज़ादी का मतलब सिर्फ अंग्रेजों को भगाना नहीं था.अंग्रेजों भारत छोडो गांधीजी ने 1942 में कहा उसके पहले वो अंग्रेज़ी क़ानून के हिसाब से ही चलते रहे और आंदोलन करते रहे.उनकी स्वतंत्रता मानसिक, सामजिक और आर्थिक थी.चरखा आर्थिक स्वतंत्रता का प्रतीक है.वो जानते थे कि अगर हम अपने मूलभूत चीज़ कपड़ों के लिए भी परतंत्र रहेंगे तो स्वतंत्रता कभी नहीं आ सकती.गाँधी मानस को स्वतंत्र देखना चाहते थे. हर सम्मेलनों में वो कहते रहे, हम जाति पाती , छुआछूत, ऊँच नीच, धार्मिक भेदभाव को जब तक पालते पोसते रहेंगे, स्वतंत्र नहीं हो सकते.
अंग्रेजों से पहले हमें अपने कुरीतियों से लड़ना होगा.
एक किस्सा-गांधीजी पहली बार बिहार गए.जहाँ उनके ठहरने का जहाँ इंतज़ाम था, वहां खाना दो जगह बन रहा था.गाँधी जी ने कारण पूछा.किसी ने बताया एक जगह ऊंची जातियों के लिए और दूसरी जगह नीची जातियों के खाना पक रहा है.गांधीजी व्यथित हो गए.बोले इस तरह से तो हम कभी आज़ादी पा ही नहीं सकते.और भी बहुत कुछ...तो ऐसे थे गांधीजी..

मंगलवार, दिसंबर 20, 2016

महात्मा मंदिर, मुकुल और कांकरिया लेक

इस यात्रा को शुरू से पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें.

अगर आप गूगल बाबा की शरण लें और टाइप करें "Best places to visit in ahmedabad " तो रिजल्ट आएगा साबरमती आश्रम, स्वामीनारायण मंदिर अक्षरधाम, इसकॉन टेम्पल, लाल दरवाज़ा, विंटेज कार म्यूजियम इत्यादि इत्यादि..आपको कहीं भी "महात्मा मंदिर" नहीं दिखेगा.

विंटेज कार म्यूजियम से निकलने के बाद मैंने मुकुल को फ़ोन किया.मुकुल के बारे में बता दूं कि इनका पूरा नाम "मुकुल कुमार सिंह 'मन्ना'" है.घर में बुलाने का नाम मुन्ना तो आपने सुना होगा लेकिन "मन्ना" नामक अनोखे किरदार ये अकेले हैं.काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में इनसे मेरी दोस्ती कैसे हुई याद नहीं.हाँ एक ही क्लास में पढ़ना एक कारण हो सकता है. लेकिन सम्पूर्ण कारण नहीं.इस हिसाब से तो सैकड़ों दोस्त होते.तो भाई आलम ये था कि लैट्रिन बाथरूम छोड़कर मैं इनके साथ, या ये मेरे साथ, जो भी कह लीजिये..लगभग हर जगह पाए जाते थे.माफ़ी चाहता हूँ एक और जगह थी जहाँ मुझे इनके साथ का सौभाग्य प्राप्त नहीं होता था.BHU के मित्र इसे भली भांति समझ सकते हैं.तो हालात अभी भी है कि कोई BHU का मिलता है तो मेरे हाल चाल के बाद दूसरा सवाल ये होता है कि "संजय जी , ये मुकुलवा का क्या हाल है".इससे अंदाज़ा आप लगा सकते हैं कि ये BHU प्रसिद्ध व्यक्ति थे.मुकुल साहब इनदिनों भारत के सबसे बड़े बैंक में चीफ मैनेजर हैं और आजकल अहमदाबाद में हैं.

आमतौर पर दोस्तों के बीच मैं बहुत प्रैक्टिकल और दार्शनिक इंसान के रूप में जाना जाता हूँ.कभी कभार "दुखी आत्मा" जैसी उपाधियाँ भी मिली हैं.रोना और रोने वाले दोनों पसंद नहीं.लेकिन जब मैं बनारस से गोरखपुर आया तो कई दिनों तक खाने की मेज पर मुकुल की याद आयी और आँखें भी डबडबाईं.गोरखपुर आने के बाद भी मेरा BHU आना जाना लगा रहा.ISM वाले डॉक्टर अभय कुमार सिंह अक्सर बोलते थे-संजय जी आपने डिस्टेंस लर्निंग में एडमिशन लिया है क्या. तो भाई मुकुल साहब से मेरा रूहानी निस्बत रहा है.

मुकुल ने सुझाव दिया कि आप महात्मा मंदिर जाइये. वर्ल्ड क्लास स्टेट ऑफ़ आर्ट म्यूजियम है.आपको पसंद आना चाहिए.मैंने ओला बुक किया.वही गाडी वही ड्राइवर.मुस्कुराते हुए हम गाडी में बैठे.और चल पड़े महात्मा मंदिर गाँधी नगर.एक जगह अमरुद भी खरीदे.3 :50 पर महात्मा मंदिर गाँधी नगर पहुँच चुके थे.कार म्यूजियम से गाँधी नगर 22 -23  किलोमीटर है .गाँधी नगर गुजरात की राजधानी है.अहमदाबाद से थोड़ी दूर.यहाँ आकर आपको चंडीगढ़ की याद आएगी.बिलकुल वैसी ही सड़कें वैसी ही बसावट.वैसा ही मेंटेनेंस.महात्मा मंदिर में टिकेट के लिए वेटिंग थी.लेकिन बहुत व्यवस्थित हालात थे.एक सुरक्षाकर्मी ने वेटिंग रूम में बैठाया. 15 मिनट में टिकट मिला.चार साल से ऊपर के बच्चे का टिकट लगता है.प्रति व्यक्ति 10 रुपये.फिर थोड़ी देर में प्रवेश मिला.अंदर भी वेटिंग थी.4 :30 बजे हमारा बुलावा आया.दरअसल 50 -50 के ग्रुप में अंदर भेजते हैं.महात्मा मंदिर एक विशाल गुम्बद नुमा ईमारत है.जिसके अंदर तीन तलों पर प्रदर्शनी है.  गांधीजी के जन्म से लेकर अवसान तक का अनुभव एक प्रभावी तरीके से आप ले सकते हैं.प्रदर्शनी चित्र, ऑडियो और विडियो का शानदार समिश्रण है.ऑडियो के लिए यन्त्र एंट्रेंस पर ही दे दिया जाता है.

"शानदार...अद्वितीय...अविस्मरणीय...अद्भुत प्रदर्शनी.."

मैं कहूँगा कि अहमदाबाद में इससे बेहतर और कोई जगह नहीं.
महात्मा मंदिर के अंदर कैमरा ले जाना मना है.आज के जीवन की चौथी मूलभूल आवश्यकता (रोटी, कपडा और मकान के बाद) मोबाइल फोन आप ले जा सकते हैं लेकिन फोटो खींचने और विडियो करने की मनाही हैं.मेरे हिसाब से मनाही होनी भी चाहिए.क्योंकि वहां रिकॉर्ड करने से ज़्यादा, समझने और महसूस करने लायक गांधीजी से आप रु-ब-रू होते हैं.वहाँ राजनेता/नेता गाँधी से ज़्यादा महात्मा और समाजसेवी गाँधी की झलक मिलेगी जिसका भारत एक ऐसा भारत है जिसमे व्यक्ति की आज़ादी सबसे बढ़कर है.इंसान से बढ़कर कोई जाति, कोई वर्ग और कोई धर्म नहीं.यहाँ गाँधी दर्शन को बेहद सरलता से दर्शाया गया है.तकनीक का शानदार इस्तेमाल है.मसलन, एक बंद गोल हाल में जब चारों तरफ से विडियो ऐसे चलने लगे मानो आप गाँधी के साथ बैठे हों और उनकी सभा में शरीक हो रहे हों, तो बाहर निकलने के बाद आप चकित और स्तब्ध हो जायेंगे.  ऐसी और कई प्रदर्शनियां आपको अभिभूत कर देंगी.महात्मा मंदिर के बारे में ज़्यादा जानने के लिए गूगल में "mahatma mandir " टाइप करें.
गांधीजी के जीवन दर्शन की कुछ बातें इस डायरी के आखिरी हिस्से में करूंगा.यहाँ से हम 6 बजे बाहर आये.कुछ चित्र बाहर से खींचे.देखिये.




 
ये वो ईमारत है जिसके अंदर प्रदर्शनी है

ये प्रवेश टिकट है.अफ़सोस ये गुजराती में है.
महात्मा मंदिर एक बहुत बड़ा परिसर है, जो गोल ईमारत है उसका नाम "दांडी कुटीर" है. 

शाम छह बजे और चन्दा मामा
चल बेटा सेल्फी ले ले रे
कांकरिया लेक:पुनः OLA बुक किये.7 बजे तक कांकरिया लेक पहुंचे.महात्मा मंदिर से कांकरिया लेक 30 किलोमीटर है.कांकरिया लेक एक मानवनिर्मित झील है जिसके किनारे तमाम मनोरंजन के साधन उपलब्ध हैं.चिड़ियाघर भी इसी के किनारे है.प्रवेश टिकट वयस्क का 10  रुपये और बच्चों का 5  रुपये है.अंदर जाने के बाद हम हॉट एयर बलून में गए.ये थोड़ा महंगा है लेकिन पहला अनुभव तो लेना बनता था.हमने लिया.एक बेहद रोमांचक amusement पार्क भी है.तरह तरह के झूले, कई उसमे से मुझे बेहद खतरनाक लगे, मौजूद हैं.यहाँ भी टिकट 300 (वयस्क) 200 (बच्चा) लगता है.लेकिन एक बार टिकट लेने के बाद आप सारे झूलों और खिलौनों का मजा ले सकते हैं.बच्चे बहुत एन्जॉय किये.मेम साहब को भी बहुत मजा आया.मुझे बड़े झूलों पर डर लगता है इसलिए थोड़ा दूर ही रहा.यहाँ हम खाते पीते मौज मस्ती करते झील का आनंद लेते 10 बजे रात तक अपने होटल में आ गए.कांकरिया लेक के बारे में सारी जानकारी इन्टरनेट पर विस्तार से उपलब्ध है.यहाँ कुछ चित्र देखिये.
हॉट एयर बलून 
हॉट एयर बलून से लिया गया चित्र 

बटरफ्लाई पार्क 
बिटिया रानी.झील के पीछे एयर बलून 

ऐसे कई झूले हैं यहाँ



गुरुवार, दिसंबर 15, 2016

साबरमती आश्रम(अहमदाबाद) यात्रा की प्लानिंग और कार म्यूजियम भ्रमण

बच्चों, महात्मा गाँधी पर लेख लिखो.बचपन में जब स्कूल में बोला जाता तो तत्काल प्रभाव से हम लिखने लगते-महात्मा गाँधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869  को गुजरात के पोरबंदर में हुआ था.उनके पिता राजकोट के दीवान थे.उनका पूरा नाम मोहनदास करम चंद गाँधी था.उन्हें हम प्यार से बापू भी कहते हैं.उन्होंने ने हमें सत्य और अहिंसा का पाठ पढ़ाया और अंग्रेजों से आज़ादी दिलाई....वगैरह वगैरह...
तब न तो हमें सत्य का मतलब पता था न ही अहिंसा की परिकल्पना.
थोड़े बड़े हुए तो असहयोग, सविनय अवज्ञा जैसे अबूझ शब्दों से भी पाला पड़ा.इन शब्दों की समझ आते आते उम्र 30 के पर हो गयी.गाँधी जी के बारे में मेरे विचार बदलते रहे हैं.छुटपन में गांधीजी निबंध की चीज़ रहे.हाइ स्कूल के आस पास इतिहास की मजबूरी.
कॉलेज के दिनों में और उसके बाद, गाँधी जी के विरोध की फुसफुसाहट भी सुनने को मिलने लगी.मसलन-"गाँधी जी चाहे होते हो भगत सिंह को फांसी नहीं होती", "गाँधी जी चाहते तो सारे मुस्लिम पाकिस्तान चले जाते", "नाथूराम गोडसे ने ठीक किया" आदि आदि...
इसी दौरान कुछ सांस्कृतिक और ऐतिहासिक उपन्यास पढ़ने का अवसर मिला.कुछ फिल्मे देखीं.बीबीसी के आर्काइव पढ़े और कुछ पुस्तकें भी.गांधीजी के विचारों को पढना और उन्हें गुनना धीरे धीरे जीवन में आने लगा.उनकी तुलना आज की भारतीय राजनीति से करने लगा और आहिस्ता आहिस्ता "महात्मा" गाँधी से रिश्ता जुड़ने लगा.और अब ये रिश्ता इतना प्रगाढ़ हो गया कि "साबरमती आश्रम" दर्शन की इच्छा बलवती होती चली गयी.

मेरा मन घुमंतू है और श्रीमती जी का भी.शादी की दसवीं सालगिरह के लिए मैंने श्रीमती से साबरमती आश्रम चलने को कहा तो वो फ़ौरन मान गयी.फिर क्या.फटाफट प्लान बन गया.train ticket booked .hotel booked .

आश्रम एक्सप्रेस में टिकट न मिल पाने के कारण हमने अहमदाबाद राजधानी का टिकट बुक किया.अब राजधानी वाक़ई पैसे वालों के लिए हो गयी है.हम जैसे लोग तो बस मजबूरी में जाते हैं.1610  रुपये का टिकट 2300  रुपये का पड़ा.ये कमाल है डायनामिक फेयर प्राइसिंग का.12958 स्वर्ण जयंती अहमदाबाद राजधानी  930 KM 14 घंटे में जाती है.यानी औसत गति 66 किलोमीटर प्रति घंटा.राजधानी के नाम पर कलंक.आम तौर पर किसी भी राजधानी की औसत गति 85 से कम नहीं है.सोने पे सुहागा ये कि अक्सर लेट रहती है.ज़्यादा नहीं एक डेढ़ घंटे.तो ट्रेन पुराण को थोड़ी गति देते हैं.8 :40 रात को आने वाली गाड़ी गुडगाँव आई 9 ;15 पर.जयपुर 1 :30  ,आबू रोड 7 :15 साबरमती सवा दस और अहमदाबाद जंक्शन दस चालीस.गोया पूरा एक घंटा लेट.
इस दौरान मैंने कुछ चीज़ें नोट की.आबू रोड के बाद बहुत सारे एरंडी(castor) के खेत दिखे.बाक़ायदा खेती होती है इधर.हमारे यहाँ तो एरंडी(रेड़) के कुछ लावारिस पौधे ही लोगों को परेशान कर देते हैं.ये निहायत ही उपेक्षित पौधा है.बचपन में इनके बीजों के गंडे गिनते थे हम.एक दूसरे की हथेली फसाकर बीच में रेड़ के बीज रखकर दबाते थे.जिसका टूट गया वो हार गया और 1 गंडा बीज जीतने वाले को देगा.आजकल इसका उपयोग होलिका दहन में किया जाता है.
पिताजी बताते थे कि पुराने ज़माने में ऊंची जातियां दलितों को रेड़ से पीटती थी."रेड़ से पीटना" मतलब अत्यधिक उत्पीडन. आज भी रेड़ से पीटे जाने को भूले बिसरे मुहावरे की तरह प्रयोग किया जाता है हमारे एरिया में.
काम की बात: एरंडी आयुर्वेद के हिसाब से बहुत उपयोगी पौधा है.इसके तेल से बहुत सारी दवाइयां बनाई जाती हैं.हरे पत्ते को जोड़ो के दर्द के निवारक के रूप में उपयोग किया जाता है.Castor Oil किसको नहीं पता.

दूसरी बात, यहाँ राजधानी एक्सप्रेस में लोकल सवारियां खूब चलती हैं.ये आपको राजधानी एक्सप्रेस के पैसेंजर ट्रेन होने का पक्का एहसास करा देंगी.

10:40 पर अहमदाबाद जंक्शन पहुंचकर फटाफट एक ऑटो से 11 बजे तक होटल पहुँच गए.अहमदाबाद जंक्शन को यहाँ के लोग कालूपुर स्टेशन भी कहते हैं.दरअसल पूरा एरिया कालूपुर है.

होटल वाले ने आईडी कार्ड माँगा.मैंने अपना ड्राइविंग लाइसेंस दे दिया.उसे बिहार का ड्राइविंग लाइसेंस पसंद नहीं आया.फिर उसने आधार कार्ड माँगा जो हमारे पास नहीं था.होटल वाले ने कहा की सॉफ्ट कॉपी भी चलेगी मेल कर दीजिये.मैंने मेल कर दिया.नहा धोकर, होटल के ही रेस्टोरेंट से खाना खाकर 1 :30  बजे हम घूमने चले. मौसम थोड़ा गरम था.चुन्नू भाई की इच्छा विंटेज कार म्यूजियम देखने की थी.हमने उन्हें प्राथमिकता दी.एक ऑटो वाले से बात की.उसने OLA बुक करने की सलाह दी.बोला सस्ता पड़ेगा.यहाँ दिल्ली से थोड़ा अलग अनुभव हुआ.खैर हमने ओला बुक की और पहुँच गए विंटेज कार म्यूजियम.2 बज चुके थे.अरे हाँ एक बात  बताना भूल गया.होटल मैंने जानबूझकर कांकरिया लेक के पास लिया था ताकि शाम का आनंद लेक के पास लिया जाय.होटल से म्यूजियम की दूरी लगभग 15 किलोमीटर है.यहाँ की एंट्री फीस 50 रुपये प्रति व्यक्ति है और कैमरे के लिए 100 रुपये अलग से.
थोड़ा विराम...
सभी हिंदुस्तानी शहरों की तरह अहमदाबाद में भी गाय माता सडकों पर विचरण करते दिखीं.गाड़ी चालकों का मूल मंत्र"गाय हमारी माता है.हमको कुछ नहीं आता है."ट्रैफिक लाइट की धज्जियाँ उड़ाती गाड़ियां हर जगह मिली.दो दिन में सिर्फ आश्रम रोड पर ट्रैफिक रेड लाइट पर रुका मिला.अन्यथा कोई भी कहीं से आपके सामने आने की चुनौती पेश कर देगा.कुल मिलाकर अहमदाबाद की सडकों पर अपनापन सा लगा.
तो चलते हैं कार म्यूजियम.यहाँ सैकड़ों पुरानी गाड़ियां हैं.दुनिया के सारे छोटे बड़े ब्रांड.मर्सिडीज़ ,रोल्स रॉयस, बेंटले और न जाने क्या क्या..बाक़ी आप चित्रों में देखिये.

प्यारी बहना का फोटो चुन्नू भाई ने लिया



कुछ कहानियों में मैंने फिटन पढी थी अब देख भी लिया













बालकों ने टॉय ट्रेन की भी ज़िद की तो उन्होंने उसका भी आनंद लिया.कुल मिलाकर अच्छी जगह है.3 :15 पर हम फुरसत हो लिए.  बहुत कुछ अगले पोस्ट में......

सोमवार, अक्तूबर 24, 2016

अब क्या ग़ज़ल सुनाऊँ - तलत अज़ीज़

आज तलत अज़ीज़ की शानदार ग़ज़ल सुनी..लाजवाब

कैसे सुकून पाऊं तुझे देखने के बाद
अब क्या ग़ज़ल सुनाऊँ तुझे देखने के बाद

आवाज़ दे रही हैं मेरी ज़िन्दगी मुझे
जाऊं मैं या न जाऊं तुझे देखने के बाद

तेरी निगाहें मस्त ने मखमूर कर दिया
क्या मैक़दे को जाऊं तुझे देखने के बाद

आँखों से हो बयान तो साँसों को रोक लूँ
चेहरा कहाँ छुपाऊं तुझे देखने के बाद

काबे का एहतेराम भी मेरी नज़र में है
सर किस तरफ झुकाऊं तुझे देखने के बाद

मखमूर- शराब पीकर मस्त

शुक्रवार, अक्तूबर 07, 2016

अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं यूँ ही कभू लब खोले हैं

अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं यूँ ही कभू लब खोले हैं
पहले "फ़िराक़" को देखा होता अब तो बहुत कम बोले हैं

दिन में हम को देखने वालो अपने अपने हैं औक़ात
जाओ न तुम इन ख़ुस्क आँखों पर हम रातों को रो ले हैं

फ़ितरत मेरी इश्क़-ओ-मुहब्बत क़िस्मत मेरी तन्हाई
कहने की नौबत ही न आई हम भी कसू के हो ले हैं

बाग़ में वो ख़्वाब-आवर आलम मौज-ए-सबा के इशारों पर
डाली डाली नौरस पत्ते सहस सहज जब डोले हैं

उफ़ वो लबों पर मौज-ए-तबस्सुम जैसे करवटें लें कौंदें
हाय वो आलम जुम्बिश-ए-मिज़गाँ जब फ़ित्ने पर तोले हैं

इन रातों को हरीम-ए-नाज़ का इक आलम होये है नदीम
खल्वत में वो नर्म उंगलियाँ बंद-ए-क़बा जब खोले हैं

ग़म का फ़साना सुनने वालो आख़िर-ए-शब आराम करो
कल ये कहानी फिर छेड़ेंगे हम भी ज़रा अब सो ले हैं

हम लोग अब तो पराये से हैं कुछ तो बताओ हाल-ए-"फ़िराक़"
अब तो तुम्हीं को प्यार करे हैं अब तो तुम्हीं से बोले हैं

ग़ज़ल का साज़ उठाओ बड़ी उदास है रात

ग़ज़ल का साज़ उठाओ बड़ी उदास है रात
नवा-ए-मीर सुनाओ बड़ी उदास है रात

(नवा-ए-मीर = मीर तक़ी मीर की ग़ज़ल)

कहें न तुमसे तो फिर और किससे जाके कहें
सियाह ज़ुल्फ़ के सायों बड़ी उदास है रात

(सियाह = काली)

सुना है पहले भी ऐसे में बुझ गए हैं चिराग़
दिलों की ख़ैर मनाओ बड़ी उदास है रात

दिये रहो यूँ ही कुछ देर और हाथ में हाथ
अभी ना पास से जाओ बड़ी उदास है रात

-फ़िराक़ गोरखपुरी