रविवार, मई 05, 2019

नालंदा, श्वेनत्सांग मेमोरियल और विश्व शांति स्तूप

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गुरपा में ही 5:45 हो चुका था।मतलब हम काफी लेट हो चुके थे।मांझी जी का गाँव गहलौर अभी दूर था और हम किसी भी हालात में 7:15 से पहले नहीं पहुँच सकते थे।इच्छा हुई कि छोड़ देते हैं कभी और के लिए।लेकिन चून्नू बाबू की बहुत इच्छा थी वहां जाने की।फिर ड्राइवर ने कहा कि राजगीर का रास्ता भी वहीं से होकर जाता है।फिर क्या, ये सोचते हुए कि ठीक से तो नहीं लेकिन एक झलक तो मिल ही जायेगी।तो राजगीर का रूट इस तरह बना।गुरपा-फतेहपुर-वजीरगंज-गहलौर-राजगीर।यह वही वजीरगंज है जहाँ दशरथ मांझी को पूरा पहाड़ घूमकर 60 किलोमीटर जाना पड़ता था।मांझी जी कहानी आगे।                        
एक बात और हुई।बोधगया में ही मेरे एक अजीज़ मित्र मनिंदर जी से बात हुई।वो बिहारशरीफ के रहने वाले हैं।वो बोले राजगीर के बजाय हमारे यहाँ आ जाइये।सुबह नालंदा होते हुए राजगीर चले जाइए। प्लान बढ़िया था।मुलाकात भी हो जायेगी और रहना तो हो ही जायेगा।टैक्सी वाले से बात की तो बोला राजगीर तक ही जाऊंगा।मैंने भी सोचा राजगीर से 25 किलोमीटर तो है।कोई भी बस वस लेकर चला जाऊंगा।लेकिन हम लेट हो चुके थे।और राजगीर पहुँचने में साढ़े आठ बजने तय थे।ऐसे में कोई साधन मिलेगा की नहीं।ख़ैर जब ओखल में सिर रख दिया तो मूसल से क्या डरना।


लगभग 7:15 शाम को हम दशरथ मांझी के गाँव गहलौर के गेट पर थे।अँधेरा हो चुका था।हमारी आँखों का प्रकृति प्रद्दत लेंस तो उस ऐतिहासिक अदम्य साहस के जीते जागते नमूने को तो देख रहा था लेकिन हमारा मोबाइल कैमरा उसका बढ़िया चित्र लेने में नाकामयाब रहा।दसरथ मांझी का वो 22 वर्षीय काम वहीँ जाकर अनुभव किया जा सकता है।चित्रों में तो बस दो खड़े पहाड़ो के बीच रास्ता ही नज़र आता है।इच्छा थी यहाँ आधा घंटा रुकने की लेकिन अँधेरे की वजह से रुकने का कोई मतलब नहीं था।और फिर कभी आएंगे यह निश्चय करके राजगीर की ओर आगे बढे।उस गेट से राजगीर तक एक शानदार सड़क बनी है।गूगल उसे नहीं बता पाता लेकिन ड्राइवर को पता था।बोला डरिये मत जबसे यह सड़क बनी है मेरा आना जाना है।

तो बता दूं कि डर तो कहीं भी नहीं लगा। अब चूँकि तय समय से हम बहुत लेट हो चुके थे।ड्राइवर से पूछा भाई बिहार शरीफ़ पहुंचा देगा।कुछ सोचा, फिर बोला सर पहुंचा तो दूंगा लेकिन एक्स्ट्रा 1000 लगेंगे।
"भाई बहुत ज़्यादा है।दूरी सिर्फ़ 25 किलोमीटर है"
"मेरे लिए तो सर आना जाना 50 किलोमीटर है।ज़्यादा कहाँ मांग रहा हूँ। मालिक को गाड़ी आज ही बोधगया देनी है।रात को ही लौट जाऊंगा।"
"फिर भी बहुत ज़्यादा है यार कुछ कम कर"
"अच्छा तो 800 दे देना इससे कम नहीं होगा"

500 तक मैं भी तैयार था।लेकिन आखिर मैं 800 में तैयार हो गया।और हम बिहार शरीफ़ की ओर थे।
रास्ते में ड्राइवर ने बिहार की शराबबंदी पर भी बात उठाई।बोला सर शराब बंदी तो हो गयी अच्छा भी हुआ, लेकिन बहुत ज़्यादा गांजा पीने लगे हैं।इसपर तो कोई रोक है नहीं और नकली शराब तो बनाई ही जा रही है।इस बात से मैं भी सहमत हूँ ।आजकल बहुत सारे गाँव में शराब बनाई जा रही है।

लगभग 9 बजे रात को हम मनिंदर जी के यहाँ थे।

मनिंदर जी हमारे BHU वाले मित्र हैं।वो कंप्यूटर साइंस में थे और मैं गणित में।मनिंदर जी हर समय खुल के हंसते मुस्कुराते रहने वाले इंसान हैं।खूब गप शप हुई।बच्चों ने भी एन्जॉय किया।बोले संजय जी 2-4 दिन पहले आते तो हम सभी साथ में घूम लेते।आपको हर जगह घुमाता।अभी तो मैं भी दिल्ली जा रहा हूँ।तो कुल मिलाकर मजा आ गया।

एक बार फिर से प्लान-
सुबह नालंदा के खँडहर देखेंगे।फिर पावापुरी जायेंगे और आखिर में राजगीर का शांति स्तूप देखेंगे।तब तक तो शाम हो जानी है।रात को बुद्ध पूर्णिमा एक्सप्रेस।सुबह अपने शहर भभुआ।
अब भाई पिलान तो बस पिलान ही है।सुबह निकलते निकलते 10 बजा दिए।बिहार शरीफ़ बस अड्डे से एक ऑटो रिज़र्व किये और नालंदा के खँडहर पहुंचे।काम की बात ये है कि बस अड्डे से शेयर्ड ऑटो भी जाते हैं जो प्रति सवारी 25 रुपये नालंदा के खंडहर तक का लेते हैं।हाँ वो चलते तभी हैं जब ऑटो पूरा भर जाय।
नालंदा के खंडहर पहुंचे टिकट लिए और गेट के अंदर हो लिए।
अब कुछ नालंदा के खंडहर के बारे में।
नालंदा एक विश्व विरासत है.इसे खंडहर कहना इसकी बेइज्जती है.यहाँ जाकर पता चलता है 2 हज़ार साल से भी पहले मौर्या काल में इतने शानदार शिक्षा केंद्र बनाये गए.उस समय भी वास्तुकला के हिसाब से हर चीज़ अप्रतिम.ऐसा लगता है बाद के दिनों में हमने शिक्षा की ऐसी की तैसी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. भला हो उपनिवेशवाद का जिसने स्वार्थवश ही सही लेकिन शिक्षा को फिर से पुनर्जीवित किया.विकिपीडिया देख रहा था.एक शब्द पर विशेष ध्यान गया."लिबरल" संस्कृति का उत्थान मौर्या काल में हुआ.और ये विश्वविद्यालय उसी के नमूने थे. 

नालन्दा के खंडहर देखते देखते 12 बज गए।पावापुरी फिर कभी और.गेट से बाहर निकले तो एक ऑटो वाले ने नालंदा घुमाने की ज़िद पकड़ ली।सर यहाँ 5 पॉइंट हैं।अभी तो आप एक ही घूमे हो।200 रुपये लूँगा।सभी जगह ले जाऊंगा।मैंने बोला भाई टाइम नहीं अपने पास।दरअसल हम गरमी से परेशान हो चुके थे।और जल्दी से खाना खाकर राजगीर जाना चाह रहे थे।किसी ने बताया था कि स्तूप 5 बजे तक ही खुला रहता है।बन्दे ने हार नहीं मानी।बोला आधे घंटे में घुमा दूंगा।मुझे हंसी आ गयी।अबे आधे घंटे में क्या घुमाएगा।फिर भी चलो।वो ले गया - श्वेतसांग(ह्वेनसांग) मेमोरियल।अद्भुत जगह है।अगर आप जाएँ तो ज़रूर जाइये।यहाँ ह्वेनसांग ने कैसे चीन से भारत की 25 हज़ार किलोमीटर की यात्रा की।रास्ते में उनके 14 साथी मौसम की मार नहीं सह सके और साथ छोड़ गए।किन किन रास्तों से गुजरे।ढेर सारी बेशकीमती जानकारियां सचित्र यहाँ हैं।इतना ही नहीं ह्वेनसांग ने बौद्ध लिपियों का चाइनीज़ में अनुवाद किया और लाओत्से  साहित्य का अनुवाद संस्कृत में करके भारत भेजा।दिव्य जगह थी।यहाँ तक 1:30 बज गए।अब तो हर हाल में निकलना ही था।ऑटो वाले को धन्यवाद कहा और उसे जहाँ से बस मिलती है वहां छोड़ने को कहा।उसने सहर्ष छोड़ दिया।

वहां बहुत ही बकवास लिट्टी चटनी खाई।अपनी इस पूरी यात्रा में कहीं भी ढंग का लिट्टी चोखा नहीं खाया।भूमंडलीकरण का एक नुक्सान यह भी है।अब लोग ठंडा मतलब कोका कोला ही जानते हैं।न तो बिहार को सत्तू याद है न ही दक्षिण भारत को नारियल पानी।अभी बैंगलोर से ज़्यादा नारियल पानी की दुकानें दिल्ली में मिलेंगी।

बस पकड़ी और पहुँच गए राजगीर।जाते ही सबसे पहले विश्व शांति स्तूप के बारे में पूछा।लोगों ने बताया यहाँ से तांगा लेना पड़ेगा।
अथ श्री तांगा पुराण:
मुझे कहीं की भी मोनोपोली पसंद नहीं है।चाहे अमेरिका की हो या मनाली से लद्दाख सिर्फ वहीं के गाड़ियों से जा सकते हैं उसकी हो।यहाँ राजगीर में भी तांगे वालों की मोनोपोली है।बसअड्डे से विश्व शांति स्तूप 8 किलोमीटर है।शानदार सड़क है।बसें पास से गुजरती हैं लेकिन वो वहां नहीं रोकेंगी।आपको बस अड्डे से तांगा ही लेना पड़ेगा।अगर आप पूरा तांगा लेते हैं तो 450 रुपये लगेंगे।हम भी मजबूर थे।एक तांगा लिया और चल दिए स्तूप की ओर।रास्ते में तांगे वाला बताते भी जा रहा था।आधे घंटे में पहुँच जायेंगे।मैंने मन ही मन कहा साले इलेक्ट्रिक रिक्शा भी 10 मिनट में पहुंचा देगा वो 50 रुपये में।

बाबू यहाँ 600 तांगे वाले हैं कोई और सवारी चलने लगी तो हम कहाँ जायेंगे।अबे ऑटो चलाएंगे और क्या करेंगे।और हाँ प्राइवेट वाहन वहां तक जा सकते हैं।

लगभग 25 मिनट में हमलोग विश्व शांति स्तूप के रोपवे के पास खड़े थे।यहाँ एक पंगा हो गया।यहाँ आकर पता चला कि 8 साल से कम उम्र का बच्चा ट्राली में नहीं जा सकता।साथ ही कोई वयस्क भी कोई बच्चा साथ लेकर ट्राली में नहीं बैठ सकता।फिर मेरी बेटी कैसे जाय।हमने निश्चय किया पैदल चलते हैं।लेकिन बेटी ने साफ मना कर दिया।पैदल नही चलूंगी।अब समस्या बड़ी।अब आये हैं तो कम से कम शांति स्तूप तो देख ही लें।फिर सर्वसम्मति से निर्णय ये लिया गया कि पहली बार में मम्मी और बेटा जायेंगे।बाप और बेटी नीचे इंतज़ार करेंगे।उनके नीचे उतरने के बाद बेचारे पापा अकेले ऊपर जाएंगे।ऐसा ही हुआ।बेटी मुनमुन और मैं नीचे बैठे।मुनमुन खूब कोसती रही।"पापा मैं 8 साल की क्यों नहीं हूँ"।"मुझे अब यहाँ कभी नहीं आना"।"फालतू जगह है ये"।फिर रोना चालू कर दिया।"मुझे तो उसपर बैठना ही है"।बड़ी मुश्किल से समझाया, अंकल जाने नहीं दे रहे और आप पैदल चलने को राजी नहीं हो।फिर कैसे जाओगे।खैर जैसे तैसे मानी।एक घंटे में मम्मी बेटा नीचे आये, अब मेरी बारी।मैंने कहा बेटा अकेले क्या जाऊंगा।तुम भी चलो।फिर क्या।अबकी बार, बाप बेटा।टिकट लिया।दोनों लोग ट्राली में बैठे।ट्राली में बैठने पर समझ आया कि 8 साल से कम के बच्चों को क्यों मना है।यक़ीन मानिये, ट्राली बहुत छोटी है।एक व्यक्ति से ज़्यादा की तो कल्पना भी नहीं की सकती।पूरी तरह ओपन भी है।कुल मिलाकर सुरक्षित नहीं है।इसलिए यह प्रतिबन्ध तो ज़रूरी था।

अब कुछ ज्ञान की बात:

विश्व शांति स्तूप एक विश्व धरोहर है और इसे 1969 में बनवाया था।इतना ही कहूंगा, आप जितना इसे चित्रों में देखते हैं उससे ज़्यादा मनमोहक है।पैदल 1 घंटे में चढ़ा जा सकता है। रास्ता बना हुआ है। अमीन सायानी के एक इंटरव्यू में मैंने सुना था, हेमामालिनी जी कह रही थीं कैसे राजगीर की उस ट्राली में देव साहब की गोद में मैं बैठी थी और लाइट चली गयी।
वो फिल्म थी, जॉनी मेरा नाम।यह फिल्म 1970 में रिलीज़ हुई थी।मतलब यह रोपवे 1970 का तो है ही।राजगीर की यह ट्राली भारत के सबसे पुरानी रोपवे में से एक है।अब ठीक इसी के बगल में एक नयी केबिन रोपवे बनाई जा रही है जो बंद केबिन होगी और उसमे छोटे बच्चे भी जा पाएंगे।2019 जनवरी में इसे स्टार्ट हो जाना था लेकिन अब शायद 2020 तक यह चालू हो जाय।
वर्तमान रोपवे 5 बजे तक बंद हो जाता है।

विश्व शान्ति स्तूप देखकर लौटने में पांच बज गए।

तांगेवाला इंतज़ार में था।बोला कोई होटल वगैरह चाहिए तो बताइए।हमने कहा भाई रात वाली बुद्ध पूर्णिमा पकड़नी है।बोला ठीक है।लेकिन 7 बजे तक स्टेशन पहुँच जाइएगा।यहाँ अँधेरे में घूमना सुरक्षित नहीं है।बस अड्डे के पास ही नौलखा जैन मंदिर है।सुन्दर है देख आइये। हमने उसका कहा माना।मंदिर देख आये।बेहद सुंदर मंदिर है।6:30 तक स्टेशन पहुँच गए।पास ही होटल में खाना खाया।बुद्ध पूर्णिमा के चलने तक राजगीर के मच्छरों को अपना रक्तदान किया।11:45 रात को ट्रेन खुली।सुबह 6:30 बजे भभुआ रोड स्टेशन।

अब बिहार की कुछ बुराइयां। बिहार में पर्यटन की अपार संभावनाएं है।मुझे ऐसा लगता है कि पर्यटन को यहाँ बढ़ावा दिया जाय तो यहाँ की गरीबी कुछ सालों में दूर हो जायेगी।लेकिन उसके लिए यहाँ की सरकारों की नीयत कभी भी साफ़ नहीं रही।सिवाय कुछ पत्र पत्रिकाओं में टीवी पर एड देने के अलावा सरकारें कुछ नहीं करतीं। एक पर्यटक के लिए ज़रूरी सुविधाओं का भी अभाव साफ़ दीखता है।एक टैक्सी स्टैंड भी बोधगया जैसी जगह पर ढूंढने से नहीं मिली।छोटी कारों का चलन अभी भी नहीं है नतीजा टैक्सी का किराया बेहद बढ़ जाता है।राजगीर जैसी जगह 6:30 शाम के बाद भूतिया लगने लगती है।नौलखा मंदिर शानदार है लेकिन उनके बाहर निकलते ही गधे की लीद की बदबू मिलेगी।हाँ नयी पीढी ज़रूर पर्यटन में संभावनाएं तलाश रही है।लेकिन बिना सरकारी इच्छा शक्ति के सफलता हाथ लगनी मुश्किल है क्योंकि पर्यटकों में बिहार को लेकर जो असुरक्षा का भाव है उसे तो सरकार ही दूर कर सकती है।हाँ लोग उसमे ज़रूर सहयोग करेंगे।चलिये बहुत हुआ।अब फिर मिलेंगे नयी राहों के साथ।तब तक...ढेर सारे सुन्दर चित्र लिए..उनमे से  कुछ चित्र देखिये...

नालंदा के खंडहर के अंदर घुसते ही 

है न शानदार 

वाह!!!    




इन दीवारों की मोटाई देखिये

जल निकासी व्यवस्था





श्वेनत्सांग मेमोरियल 

श्वेनत्सांग मेमोरियल 

विश्व शांति स्तूप के पास का घंटा

यह भी एक स्तूप है

विश्व शांति स्तूप

नौलखा मंदिर

--इति यात्रा।