मंगलवार, अगस्त 23, 2011

चेन्नई डायरी

आजकल चेन्नई में हूँ..चेन्नई से जुडी कुछ बातें बताता रहूँगा..

 काफी खोजबीन के बाद आज मैंने हिंदी अख़बार "राजस्थान पत्रिका" चेन्नई में ढूंढ निकाला(२४-०८-११).
आपने किसी गाडी को धक्का लगते देखा है?देखा ही होगा..आप कहेंगे ये तो आम बात है..लेकिन अगर मैं ये कहूं  की आपने ट्रेन को धक्का लगते देखा है तो आप क्या कहेंगे?मेरा दिमाग सनक गया है..लेकिन नहीं..भारत में एक ऐसा भी रेलवे रूट है जहाँ ट्रेन को धक्का लगाना पड़ता है.जी हाँ.ये स्टेशन इटारसी से नागपुर के बीच पड़ता है.धाराखोह-ये स्टेशन एक छोटा सा स्टेशन है.लेकिन आप यहाँ 4 -5 ट्रेन के इंजिन देख सकते हैं..दरअसल यहाँ सभी ट्रेन में 2  इंजिन जोड़ दिए जाते हैं ..वो भी पीछे से.और ट्रेन को धक्का लगाते हैं.भाई जबरदस्त चढ़ाई जो है.बेचारा एक इंजिन ट्रेन को खींच नहीं पाता.फिर ये दोनों इंजिन अगले स्टेशन -मरमझिरी में अलग कर दिए जाते हैं.चाहे कोई भी ट्रेन हो यहाँ रूकती जरूर है.हैं न मजेदार बात.. 

शुक्रवार, अगस्त 19, 2011

जीवन की आपाधापी में

एक अरसा गुजर गया कुछ लिखे हुए.
इसलिए..मन की अभिव्यक्ति को बच्चन जी एक मशहूर कविता द्वारा व्यक्त कर रहा हूँ.
 
जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोंच सकूँ,
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

जिस दिन मेरी चेतना जगी मैने देखा
मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में,
हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भूला
हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले मे
कुछ देर रहा हक्का बक्का, भौचक्का-सा,
आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा?
फिर एक तरफ़ से आया ही तो धक्का-सा
मैने भी बहना शुरू किया उस रेले में,
क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,
जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा,
जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
जो कहा, वही मन के अन्दर से उबल चला,

जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ,
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा-भला।
मेला जितना भडकीला रंग-रंगीला था,
मानस के अन्दर उतनी ही कमज़ोरी थी,
जितना ज़्यादा संचित करने की ख़्वाहिश थी,
उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,
जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,
उतना ही रेले तेज़ ढकेले जाते थे,
क्रय-विक्रय तो ठण्डे दिल से हो सकता है,
यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी,
अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊँ
क्या मान अकिंचन बिखराता पथ पर आया,
वह कौन रतन अनमोल मिला ऐसा मुझको,
जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,
यह थी तकदीरी बात मुझे गुण दोष न दो
जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,
जिसको समझा था आँसू, वह मोती निकला।

जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोंच सकूँ,
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा-भला।
मैं कितना ही भूलूँ, भटकूँ या भरमाऊँ,
है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,
कितने ही मेरे पाँव पडे ऊँचे-नीचे,
प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,
मुझ पर विधि का आभार बहुत-सी बातों का।
पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा--
नभ ओले बरसाये, धरती शोले उगले,
अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,
मैं जहाँ खडा था कल उस थल पर आज नही,
कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,
ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं
केवल छूकर ही देश-काल की सीमाएँ
जग दे मुझपर फ़ैसला उसे जैसा भाए
लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के
इस एक और पहलू से होकर निकल चला।

जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोंच सकूँ,
जो किया, कहा, माना उसमें क्या भला-बुरा।