रविवार, दिसंबर 30, 2018

जंजैहली शिकारी माता यात्रा



दिनांक : 22.12.2018
समय    : शाम 05:05 

एक बड़ा सा ट्रैवेलर बैग ढेर सारे कपड़ों से भरा जा चुका था.एक हैंडबैग में खाने की सामग्री से लैश होकर भोपाल के लिए कूच करने ही वाले थे कि एक धमाकेदार मैसेज से मोबाइल की स्क्रीन चमकी.भोपाल जाने के लिए लिया गया वेटिंग टिकट वेटिंग ही रह गया था और श्रीमती जी का भोपाल जाना स्थगित.
  • हालाँकि पता नहीं क्यों चेहरे पर मायूसी के बजाय मुस्कान बरकरार थी.ऐसा अक्सर नहीं होता.पत्नियों के लिए मायका हमेशा से अति विशिष्ट होता है.आइये कुछ मजेदार बात समझते हैं.थोड़ा गौर कीजियेगा.हर पत्नी के लिए उसका मायका उसके पति के घर से कई गुना बेहतर होता है.मसलन मेरी मां को भी मेरे नानी गाँव की हर चीज़ हमारे यहाँ से बेहतर लगती है.हालाँकि हमें ऐसा बिलकुल नहीं लगता.मतलब पीढ़ी दर पीढ़ी पीछे जांय तो मायका बेहतर और बेहतर और बेहतर ..अब दूसरा पक्ष लेते हैं.बतौर जावेद अख्तर, पति को हमेशा उसके माँ के हाथ का खाना पत्नी से बेहतर लगता है.यानि पीढ़ी दर पीढ़ी खाने की क़्वालिटी ख़राब और ख़राब और ख़राब..आनेवाली पीढ़ी और ख़राब खाना खायेगी क्योंकि मां से अच्छा तो कोई बना ही नहीं सकता..चलो जी ये हुई मजाक की बात.अब आगे बढ़ते हैं.

गुरुवार, दिसंबर 27, 2018

गढ़ मुक्तेश्वर के मेले में

कई बार ऐसा महसूस होता है कि मैं एक अतीतजीवी व्यक्तिहूँ.इसलिए कुछ लिखता हूँ तो गाहे बगाहे अतीत आ ही जाता है.मेरे गाँव के पास ही एक गाँव है - करजांव.वहां प्रति वर्ष एक मेला लगता है.मेला कितना पुराना है ये तो नहीं पता लेकिन जब मैं 6-7 साल का था तब गया था.उस समय मेला का समुचित परिभाषा हमारी पाठ्य पुस्तक का वो पन्ना था जिसने राम, श्याम, कमल और सलमा मेला देखने जाते हैं, जलेबियाँ खाते हैं, बांसुरी और गुड़िया खरीदते हैं और नाचतेकूदते अपने रहीम चाचा के साथ शाम तक वापस घर आजाते हैं.
बाबूजी शहर रहते थे.गाँव में मेरी मां, आजी(दादी) और बाबा(दादा) रहते थे.आजी से मैंने आग्रह किया मुझे भी मेला देखने जाना है.आजी ने कहा-कहाँ इतना दूर जायेगा, मेले में"भुला" जायेगा."नहीं-मुझे जाना है".फिर बाल हठ के सामने उन्होंने घुटने टेक दिए. अब समस्या ये थी कि मैं जाऊं किसके साथ.

रविवार, अक्तूबर 21, 2018

चकराता ट्रिप - टाइगर फॉल, गौराघाटी, पांडव गुफा, लाखामंडल, कृष्णा फॉल और वापसी

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हमारी यात्रा का आखिरी दिन था.2 अक्टूबर, गाँधी/शास्त्री जयंती, मंगलवार. और पहले से तय था कि बस 7 बजे चलेगी.लेकिन पकौड़ियाँ खाते खाते कुछ समय ज़्यादा हो गया और हम चल पाए 7:45 पर. टाइगर लॉज की विशेषता यह है कि यह एक बेहद शानदार लोकेशन पर है. सनराइज देखने के लिए आपको कहीं जाना नहीं पड़ेगा.टाइगर फॉल जाने की पगडण्डी भी ठीक सामने है.तो कुछ फोटोज हम सनराइज के खींचे.नीरज ने हमें पहले ही बताया था कि हम लाखामंडल कम रुकेंगे.उसके रास्ते का आनंद लेंगे और जमकर फोटोग्राफी करेंगे.हम चले और बस थोड़ी ही दूर पर शानदार प्राकृतिक गेंदे का बागान सड़क के दोनों तरफ.अहा..इन नज़ारों के बारे लिखना तो नीरज गुरु जैसे लेखकों का काम है हम तो बस उस अनुभूति से ही आनंदित थे.वहां हम चित्र विचित्र मुद्राओं में फोटोग्राफी किये.

मंगलवार, अक्तूबर 16, 2018

चकराता ट्रिप - चकराता और टाइगर फॉल


अपनी इस चकराता भ्रमण की चरचा जब मैंने एक सहकर्मी से की तो उन्होंने कहा, अरे आप तो सारा जौनसार घूम कर गए. मेरे लिए यह एक नया शब्द था. जब पूछताछ की तो पता चला कि चकराता को दो हिस्सों में बांटा जाता है-जौनसार और बावर. जौनसार निचला हिस्सा है और बावर ऊपरी हिस्सा. चकराता एक आर्मी कैंटोनमेंट एरिया है.यहाँ अभी भी रूल्स रेगुलेशंस आर्मी से नियंत्रित हैं.नया मकान बनाने की लगभग मनाही है.मकान में बदलाव के लिए भी आर्मी के परमिशन की ज़रुरत पड़ती है. लगभग लैंसडाउन की तरह. चकराता से आगे का एरिया 2-3 साल पहले तक एकल दिशा मार्ग था.मतलब एक टाइम पर एक ही दिशा में गाड़ियां चलेंगी.कालसी के पास एक गेट था जो सात बजे सुबह खुलता था.इस गेट को हर ढाई घंटे पर खोला जाता था.और भी पाबंदियां थीं.कालसी से सहिया 18 किलोमीटर है और हर गाडी को इसे 1 घंटे में ही पार करना होता था.मतलब अगर आप चले 7 बजे और सहिया पहुंचे 7:30 बजे.आपको सहिया में रुके रहना पड़ता था 8 बजे तक.कुल मिलाकर आपकी ऐसी की तैसी.हालाँकि यह कवायद रोड काफी पतली होने के कारन था.अब सड़क अच्छी है और इस तीन पांच की ज़रुरत नहीं. शायद हुक्मरानों को इस बात का अंततः पता चला गया और यह व्यवस्था ख़तम की गयी.अब कभी भी आओ कभी भी जाओ.

सोमवार, अक्तूबर 15, 2018

चकराता ट्रिप - लोखंडी टिब्बा, मोइला टॉप, बुधेर गुफा























आज का ब्लॉग एक फोटो अल्बम है.30 तारीख की सुबह अपनी आदत के हिसाब से जल्दी उठ गए थे और नहा धोकर तैयार.जब तक बीवी बच्चे भी तैयार होते हैं तब तक घूम आता हूँ बाहर.होटल के ठीक सामने एक बड़ा सा टीला जैसा था.उसपर चढ़ आया.उससे भी ऊंची जगह दिख रही थी वहां नहीं गया.थोड़ी देर में श्रीमती जी और बच्चे जब तैयार होकर आये तब और ऊपर जाने का मन बनाया.बालक तो ज़्यादा ऊपर नहीं गए लेकिन मैं ऊपर गया.वहां से पता चला उससे भी ऊपर एक चोटी जैसा है.नहीं गया.दरअसल वो पूरी धार है जो होटल से कम ही दिखती है.वहीँ पर बेटी को ठण्ड लगने लगी.कुछ फोटोग्राफ लिए और फटाफट नीचे आये.बेटी के पैर में तेल लगाकर खूब रगड़े,कम्बल ओढ़ाए. डर था कहीं ठण्ड लग जाय नहीं तो सारी ट्रिप का सत्यानाश.लेकिन ये सिर्फ बुरे ख़याल ही रहे.थोड़ी ही देर में बेटी चंगी हो चुकी थी.पराठे खाये गए.आज की योजना थी मोइला टॉप और बुधेर केव जाने की.

गुरुवार, अक्तूबर 11, 2018

चकराता ट्रिप - देहरादून, उदय झा जी, डाकपत्थर बराज, लोखंडी आगमन

हमारे घूमगुरु नीरज के साथ की गयी यात्राओं का हासिल कुछ विशिष्ट होता है. मसलन रैथल यात्रा की बात करूं तो एक एक पल हासिल ही था. मैं एक पर्यटक कैटेगरी का व्यक्ति हूँ. शिमला मनाली नैनीताल जैसे जगहों  से इतर किसी भी पर्वतीय जगह पर नहीं गया था. रैथल एक शानदार यात्रा रही जिसमे एक हिमालयी गाँव के अलावा कुछ अद्भुत(जो बाद में पता चला) महामानवों से मुलाक़ात हुयी. गंगोत्रीयात्रा भी यादगार रही जिसमे नेलांग, सातताल ट्रेक के दौरान साग भात और मार्कण्डेय मंदिर भूलने वाले पल हैं. इसी कड़ी में चकराता यात्रा भी विशिष्ट है.

"रामचंद्र कह गए सिया से, ऐसा कलयुग आएगा |
दोनों तरफ से मैसेज होंगे, मिलने कोई नहीं आएगा ||"

यह मैसेज भेजा था उदय झा जी ने जो हमारी रैथल यात्रा के सहयात्री थे. जिन्हे मैंने उनके घर पर मिलने का वादा कर चुका था. मैं बहुत जल्दी घुलने मिलने वाला व्यक्ति नहीं हूँ. रैथल यात्रा भी महज दो दिनों की थी. जिसमे से सिर्फ एक दिन ही झा जी का साथ मिला.

सोमवार, जुलाई 09, 2018

गंगोत्री यात्रा - भागीरथी और गंगोत्री मंदिर

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चलो जी थोड़ा ज्ञान बघारते हैं.

नदियां पूरी दुनियां में विशिष्ट स्थान रखतीं हैं. दुनिया के लगभग सभी बड़े शहर नदियों के किनारे हैं.लंदन थेम्स के किनारे है. मास्को मॉस्क्वा नदी के किनारे हैं. दिल्ली यमुना तो बनारस गंगा के..लगभग पूरे विश्व में नदियों को बहुत आदर देने की परंपरा रही है.क्यों?उत्तर बेहद आसान है और सभी जानते हैं.दरअसल मानव सभ्यता का विकास ही नदी घाटियों में हुआ. सिंधु घाटी सभ्यता सिंधु नदी के किनारे, मेसोपोटामिया की सभ्यता दजला और फुरात नदियों के बीच में, मिस्र की सभ्यता नील और चीन की सभ्यता ह्वांगहो नदी के किनारे फली फूली. अब इसके कारण की बात करते हैं. मानव जब संगठित रहना शुरू किया और मांस से अनाज खाना शुरू किया तो उसने ऐसी भूमि की तलाश की जो अनाज के लिए उपयुक्त हो पानी की उपलब्धता हो. नदी के किनारे की ज़मीन सर्वाधिक उर्वर होती है और पानी तो था ही. इस तरह लोग नदियों के किनारे जगह जगह रहने लगे.धीरे धीरे सभ्यता का और विकास हुआ लेन देन(व्यापार) की शुरुआत हुई.व्यापार के लिए भी नदियां उपयुक्त थीं.लकड़ी के बड़े बड़े लठ्ठे जो तैरते थे उनपर सामान लादकर एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जाने लगा.कालांतर में नावों का उपयोग होने लगा.
तो चूँकि नदियां हर तरह से मानव के लिए उपयोगी हैं इसलिए मानव ने उन्हें आदर देना शुरू कर दिया.

अब आते हैं अपनी यात्रा पर - गंगोत्री. यानी गंगा का उद्गम. भारत में पवित्र नदियों में गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र, नर्मदा इत्यादि हैं.गंगा उनमे सबसे आदरणीय , पूजनीय है क्यूंकि यह भारत के सर्वाधिक मैदानी इलाकों को लाभ पहुंचाती है. पूजा इसलिए क्यूंकि भारत में सम्मान देने का श्रेष्ठतम तरीक़ा पूजा वंदना ही है.हमारे घर में पंडित श्रीराम आचार्य का फोटो है और पिताजी रोज़ उसकी पूजा करते हैं. हालाँकि मेरा नदियों को सम्मान देने का तरीका थोड़ा भिन्न है-नदियों में मल मूत्र त्याग न करें, फूल माला न सड़ायें, लाशें न बहाएं, नाले का पानी न बहाएं, फैक्टियों का अपशिष्ट पदार्थ से नदी को ज़हरीला न बनायें वगैरह वगैरह. पूजा पाठ में मेरी कोई रूचि नहीं.

12 बजे के क़रीब हमलोग नेलांग से गंगोत्री मार्ग पर आ चुके थे और थोड़ी ही देर में गंगोत्री.होटल पहले से बुक था.लोकेशन अल्टीमेट - एकदम भागीरथी के किनारे. हाँ थोड़ा रखरखाव की कमी अवश्य लगी.सबसे पहले तो सबको भूख लगी थी.एकदम से होटल के रेस्टोरेंट पहुंचे और धड़ाधड़ आर्डर दे दिया. होटलवाला अपने काम में लग गया. चूँकि खाना आने में बहुत देर हो रही थी सो मैंने एक चक्कर गंगोत्री मंदिर का भी लगा आया.मंदिर निकट ही था.होटल वापस आया तो अभी तक खाना नहीं बना था.भूख के मारे हाल बुरा.खैर बन्दे ने खाना लगाया और हम टूट पड़े. और फिर आराम. 5 बजे के क़रीब नीरज हम लोगों को सूर्यकुंड ले गए.भागीरथी ग़ज़ब वेग से एक कुंड में गिरती है.उसका कुछ धार्मिक आख्यान भी था वहां लेकिन अपने को उससे कोई लेना देना नहीं.बेहद शानदार नज़ारा  था. घुमते घुमते हम पहुंचे गंगोत्री मंदिर के घाट पर जहाँ लोग भागीरथी में स्नान करते हैं. यहाँ भी हमारे एकमात्र वीर पुरुष अजय जी ने भयंकर ठन्डे पानी से नहाया.मैंने वीडियो भी किया. श्रीमती जी ने भी गंगा जल भरा. भागीरथी का जल वहां पर मटमैला है लेकिन कुछ घंटों बाद बालू नीचे बैठ जाता है और पानी निर्मल हो जाता है.

एक बात और - मैं बार बार भागीरथी भागीरथी बोल रहा हूँ. तो बता दूँ कि उद्गम के पास गंगा का नाम भागीरथी ही है. काफी बाद में देवप्रयाग में अलकनंदा और भागीरथी एक साथ मिलती हैं और उसके बाद भागीरथी गंगा कहलाती है.

उसके बाद हम पहुंचे सामूहिक रूप से गंगोत्री मंदिर. श्रीमती जी फटाफट मंदिर हो आईं. बाकी जनता भी मंदिर गयी तबतक मंदिर बंद हो चुका था और अनाउंसमेंट हुआ 1 घंटे में खुलेगा. 7 बजे मंदिर तो खुला लेकिन अर्थदान करनेवाले श्रद्धालुओं के लिए.तो निराश सभी जन पंडों को भला बुरा कहते हुए होटल लौटे.

मेरी बस सुबह 5 बजे थी हरिद्वार के लिए. मैं और नीरज गए बस देखने कौन सी बस है.वहां गया तो ड्राइवर बोला ऑनलाइन बुकिंग है क्या. कौन सी सीट है आपकी. अरे रे रे मैंने तो आपकी सीट किसी और को दे दी.चलिए कोई बात नहीं आप सुबह आ जाना उन्हें कहीं और बैठा दूंगा. मतलब ये कि उत्तराखंड परिवहन गंगोत्री होने वाली ऑनलाइन बुकिंग की जानकारी बस कंडक्टर को भी नहीं देता.

चुन्नू मुन्नू ने मोमोस खाने की फरमाइश की. फिर क्या नीरज साहब ने चूनु के साथ साथ अपने लिए मोमोस मंगवाए.मैंने सिर्फ चावल दाल.अजय जी ने थुक्पा और उमेश जी ने बर्गर. उसके बाद सबने गुलाबजामुन भी खाई. आखिर में नीरज के रूम में बैठकर गपशप 11 बजे तक होती रही.सुबह 5 बजे बस पकड़ी और शाम 6 बजे तक हरिद्वार. और हाँ उसी बस से उमेश जी और अजय जी भी आये. बाकी जनता मोटरसाइकिल   वाली थी.
इसबार हम खाते पीते आये और उल्टियां नहीं हुईं. ये हमारी उपलब्धि थी.

हरिद्वार में उमेश जी और अजयजी को दूसरी बस पकड़नी थी.मैंने ट्रेन टिकट बुक किया था हरिद्वार से.१०:५० ग़ाज़िआबाद पहुंचे और १२ बजे तक घर.

इति यात्रा  ...


होटल के रेस्टोरेंट में एक पुष्प - है न बेहद खुशनुमा

गंगोत्री धाम
सीढ़ी के नीचे हमारा कमरा - सामने भागीरथी           
कैसा लगा
सूर्य कुंड
इस धंधे को देखकर तन बदन में आग लग जाती है, बस अभी तक भस्म नहीं हुआ.
भागीरथी में नहाने के घाट
यहाँ धारा बेहद तीव्र है           
नीरज ने बताया बुढेरा यहाँ की जनजाति है 
सायंकालीन आरती वाले भक्त
अजय जी थुकपा के साथ

इस तरह इस यात्रा का शानदार समापन. दूसरे दिन 27 तारीख़ को...    
भटवाड़ी में सुलभ शौचालय
नज़ारे हम क्या क्या न देखें   
ये चित्र कब लिया पता नहीं 

और अंत में सभी मित्रवर को साधुवाद..

शनिवार, जुलाई 07, 2018

गंगोत्री यात्रा - नेलांग वैली और गरतांग गली


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अगर आप गूगल देव से अंग्रेज़ी में  "nelang "या nelong के बारे में पूछेंगे तो कुछ समाचार पत्रों के लिंक दिखाई देंगे जो "नेलांग वैली आम नागरिकों के लिए खुल गयी" के बारे में होंगे.या कुछ होटलों के वेबसाइट होंगे जो नेलांग के बारे में हल्काफुल्का ज्ञान के साथ अपने यहाँ आमंत्रित करेंगे. कुछ चित्र वगैरह भी होंगे.laddakh of  uttarakhand भी दिख जायेगा.
अगर आपने हिंदी में "नेलांग"  टाइप करते हैं तो गूगल बाबा न्यूज़ के साथ साथ "नीरजमुसाफिर.कॉम" लिंक भी दिखाएंगे. तो भाई ये कहने की बात नहीं है कि अगर आपको नेलांग घाटी के बारे में विशिष्ट जानकारी चाहिए तो नीरज साहब के वेबसाइट पर जाइये या यहाँ क्लिक कर दीजिये हमीं पहुंचा देते हैं.

हम यहाँ आपको अपनी इस यात्रा के बारे में संक्षेप में बताएँगे.

हमारी गंगोत्री यात्रा का आखिरी दिन था.प्लान पहले से तय था कि हम सुबह नेलांग जायेंगे और फिर गंगोत्री.चूँकि हर्षिल हमलोग नहीं घूम पाए थे इसलिए सोचा गया कि आखिरी दिन ही एक घंटे सुबह हर्षिल घूमकर नेलांग चले जायेंगे.लेकिन हर्षिल शायद अगली बार के लिए छूट जाना था इसलिए छूट गया.
हमलोग नाश्ता करके होटल छोड़ दिए.
नीरज साहब ने कहा कि चूँकि नेलांग में धुप तेज़ होती है इसलिए सभी लोग चश्मा पहन लें और फुल बाजू के कपडे भी.
हमारे पास चश्मे नहीं थे और बेटी के पास तो फुल बाजू के कपडे भी नहीं थे.फिर क्या, ऐसे ही चल पड़े.नेलांग का रास्ता मुख्य गंगोत्री मार्ग पर स्थित भैरोघाटी से कट जाता है. 8 बजे के क़रीब भैरोघाटी पहुँच चुके थे.  यहाँ से गंगोत्री लगभग 10 किलोमीटर है.यहाँ जंगल विभाग तो अपना परमिट दिखाया गया. हमें हिदायत भी दी गयी कि अगर प्लास्टिक की बोतल या पोलोथिन लेकर जा रहे हों तो वापस साथ लाना न भूलें. और हम कूच कर गए नेलांग की तरफ.

नेलांग वाली सड़क जाधगंगा नदी के किनारे किनारे है. और अभी चौड़ीकरण का काम चल रहा है इसलिए काफी ख़राब हालत में हैं.सड़क हालाँकि बहुत चौड़ी है. दोपहिये वाहनों को इस सड़क पर चलने की इजाजत नहीं है.इस सड़क पर पर्यटकों को केवल 23 किलोमीटर तक जाने की ही इजाज़त है.तिब्बत(चीन) बॉर्डर होने के कारण २३ किलोमीटर के बाद सिर्फ सेना और ITBP के जवान रहते हैं.रास्ते में ३ नाले भी पड़ते हैं इनपर पुल का निर्माण कार्य चल रहा है.ये पूरी सड़क बीआरओ(बॉर्डर रोड आर्गेनाइजेशन) बनवा रहा है.नीरज भाई की पैठ बीआरओ के अंदर तक है और इनका दावा है कि 10 साल में भी ये सड़क ऐसी की ऐसी ही रहेगी.
हमलोग 9:30 बजे तक 23 किलोमीटर दूरी तय करके नेलांग पहुँच चुके थे. यहाँ पर सेना के एक जवान से बात भी हुई.उन्होंने हमें लगभग सभी चोटियों के नाम भी बताये.एक को छोड़कर बाक़ी मैं भूल चूका हूँ.

ज्ञान की बात-नेलांग क्षेत्र में 1962 के भारत चीन युद्ध से पहले आबादी भी रहती थी.नेलांग और जादुन्ग गाँव के आदिवासी शायद भोटिया रहते थे.ये बहुत अच्छे शिल्पकार थे और 1962 से पहले भारत और तिब्बत का व्यापर बहुत उन्नत था.व्यापर का रास्ता जाधगंगा के उसपार की पगडंडी थी जिसपर खच्चर से व्यापर होता था.कहीं कहीं उस पगडण्डी के अवशेष अभी भी दीखते हैं.भैरों घाटी से थोड़ी ही दूर पर लकड़ी का एक गलीनुमा सरंचना है जो अभी भी इंजिनीयरिंग का बेतरीन नमूना है.इसके बारे में ज़्यादा विस्तार से नीरजमुसाफिर.कॉम पर लिखा है.इसे गारतांग गली कहते हैं.1962 के युद्ध के समय इन गाओं को ख़ाली करा दिया गया और बगोरी और डुंडा में बसाया गया.

सेना के जवान ये भी बताया कि जादुन्ग गाँव के मूल निवासियों को साल के एक दिन उनके ग्राम देवता के पूजन हेतु गाँव में जाने की इजाज़त दी जाती है.उस दिन सेना की सुरक्षा बढ़ा दी जाती है.ग्रामवासियों को ट्रकों में भरभर ले जाया जाता है और गाँव के अलावा कहीं भी जाना मना होता है.
इस तरह हमलोगों ने गप्पें करते हुए फोटो खींचते हुए आनंद लिया.मौसम बेहद मस्त था.हल्की ठण्ड थी. 
लगभग 40-45 मिनट के बाद हमलोग वापसी की राह पकडे. रास्ते में बोतल मोड़ पर रुके.बोतल मोड़ की कहानी कुछ यूँ है कि सेना के तीन जवान यहाँ पानी भरने आये और लैंड स्लाइड की वजह से वो मारे गए.इसीलिए वहां उनके सम्मान में एक मेमोरियल पत्थर गाड़ा गया जिसपर उस घटना का उल्लेख है. और बोतलों में पानी  भरकर रखा जाता है क्यूंकि उनकी मौत पानी लाने के वक़्त हुयी थी.ऐसा कहते हैं कि वो सैनिक बोतल का पानी पी जाते हैं.क्यूंकि वहां का मौसम एकदम शुष्क है.आर्द्रता नाम मात्र की है इसलिए पानी बोतल में रखे रखे उड़ जाता है.
यहाँ फोटो वोटो लेने के बाद आगे बढे और सीधे गरतांग गली रुके.
बाक़ी फोटो में देखिये...


जाधगंगा
कुछ ऐसी सड़क थी
हनुमान जी अभी पर्वत पर हैं,बस पर्वत उठाने की देर है.

और ये नेलांग.सामने बर्फ वाला पहाड़ नंदी टॉप है.ऐसा सेना के जवान ने बताया.
फोटो में नंदी टॉप ने नीचे मटमैले रंग का ग्लेशियर है.नंदी टॉप और ग्लेशियर ने बीच में एक झील है.वहां जाना मना है.सेना को भी.नंदी टॉप के पीछे गौमुख ग्लेशियर है जो कि भागीरथी(गंगा) का उद्गम है.
बिटिया यहाँ थोड़ी सुस्त थी और वो गाडी में जाकर बैठ गयी थी.


है न लद्दाख जैसा माहौल
हमारी सीमा यहीं तक थी
बोतल बेंड

कुछ दूर तक सड़क ऐसी भी है



बोतल मोड़ के पास
गरतांग गली - खड़े पहाड़ को काट कर बनाया गया लकड़ी का रास्ता . यह भारत तिब्बत व्यापर का मुख्य मार्ग था

जाधगंगा और हमारी सड़क जिसपर से हम आ रहे हैं

इस तरह नेलांग भ्रमण बेहद शानदार और ज्ञानवर्धक रहा 
अगला और अंतिम भाग - गंगोत्री मंदिर 

गुरुवार, जुलाई 05, 2018

गंगोत्री यात्रा - धराली से सात ताल ट्रेकिंग

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पहला दिन बेहद शानदार रहा.दूसरे दिन का प्लान था सात ताल की ट्रैकिंग। ये वो सात ताल नहीं जो नैनीताल के पास है. ये सात तालों का समूह धराली के पास है. 24 की शाम को ही हमारे मौसम वैज्ञानिक नीरज ने कहा कि अगर कल सुबह बादल  होते हैं तो दोपहर तक पक्का बारिश होगी. ऐसे में हमलोगों को 7 बजे सुबह चलना होगा ट्रैकिंग के लिए, जिससे हमलोग दोपहर तक लौट सकें. मौसम साफ़ रहा तो 9 बजे तक चलेंगे. फिर भी  हम लोग 25 जून को 6 बजे जग चुके थे.मौसम देखा, एकदम साफ़. फिर क्या, बात समझ आ गयी कि जनता 9 बजे ही चलेगी.नास्ता करके चलते चलते 10 बज गए. एक बात और - मुझे अपनी बेटी के बारे में थोड़ा  संशय था कि 10 किलोमीटर का आना जाना वो कर पाएगी कि नहीं. ऐसे में सभी मित्रों ने हौसला बढ़ाया. बोले चलने दो. नहीं चल पाएगी तो  हम पांच लोग तो हैं ही. और हमारी ट्रैकिंग शुरू हो गयी। सड़क से ऊपर की तरफ धराली गॉंव में कुछ सीढ़ियां दिखीं. हमें उनपर  ही चलना था. वहां एक बोर्ड भी लगा है सात ताल ट्रैकिंग मार्ग का पुनरुद्धार किया गया है. लागत - रुपये.... ये सीढ़ियाँ धराली प्राथमिक विद्यालय के बगल से जंगल की तरफ चली जाती हैं. जहाँ तक गाँव है पक्की सीढ़ियां बनी हैं और चढ़ने में बेहद तकलीफ़देह। सांस चढ़ जाती थी. जब ये सीढ़ियां ख़तम हुई और जंगल का रास्ता आया तब जाकर थोड़ा आराम मिला. फिर भी चढ़ाई जारी रही. केवल 2 ही वीर पुरुष थे भागे जा  रहे थे। एक चुन्नू बाबू और दूसरे हमारे ग्रुप के सबसे मजबूत सदस्य अजय साहब.

लगभग 40 -45  मिनट बाद सभी रुके. अजय जी पहले से मौजूद थे. वहां एक पानी का पाइप था. सभी ने बोतलें भरीं. वापसी में भी सभी जन यहीं रुके थे.
यहाँ एक पौधा था,कीड़े खाने वाले पौधे जैसा. "पिचर प्लान्ट ". बालक ने बताया ये पिचर प्लांट है. नहीं-ये पिचर प्लांट जैसा है. आगे बढे - कभी कभी चढ़ाई बहुत ज़्यादा महसूस हो रही थी.  उमेश जी की हालत एकदम ख़राब। सबसे ज़्यादा आराम करने वालों में से एक.
रास्ते में एक ग्रामीण मिले अपने खेतों में  काम करते हुए।उन्होंने नाग मंदिर  और भीम गुफ़ा के बारे बताया। लगभग 11:30 बजे हमलोग पहले ताल पहुंचे. ताल क्या  छोटी तलैया कहिये। हमारे  साहब ने पहले ही बता दिया था कि ताल तो बहाना है असल लक्ष्य तो ट्रैकिंग करनी है.पहले ताल पर थोड़ी देर रुके.फोटो वोटो खींचे.आराम किये.और चलते बने.थोड़ी चढ़ाई करने पर दूसरा ताल मिला.काफी बड़ा था लेकिन  पानी नहीं था.शायद बीच में कीचड था.वहां सभी फिर से आराम करने लगे.नीज भाई ने कहा भीम गुफा ढूंढते हैं.साथ चलने के लिए मैं,चुन्नू बाबू,रूद्र हनुमान तैयार हुए.बाकि जनों ने आराम को चुना.

इधर उधर दाएं बाएं करते हुए, ये सोचते हुए कि भालू आ गया तो, मोबाइल में गाना बजाते हुए, चलते रहे.थोड़ी ही देर में एक बाड़ मिली.बाड़ के अंदर घुसे तो एक झोपड़ी जैसी दिखी जिसे नीरज साहब छानी कहते हैं.वहां सेब के बागान,राजमा के खेत, गुलाब, सौंफ, चेरी और न जाने क्या क्या ..था.वहां जाकर पता चला कि यह एक बहुत बड़ा सेब का बाग़ है जिसके मालिक धराली के ही रहने वाले हैं.वहां पर एक केयरटेकर 56 वर्षीय राजबहादुर रहते हैं.वो नेपाल के रहने वाले हैं और अपनी बेटियों के साथ यहाँ की रखवाली करते हैं.इत्तेफ़ाक़ की बात थी कि उस वक़्त उस फार्म के मालिक भी अपने मित्रों के साथ मौजूद थे.वो एक दिन पहले पिकनिक मनाने आये थे.आज धराली वापस जा रहे थे.उनलोगों से भी काफी बात हुयी.दुआ सलाम हुआ.साथ ही उन्होंने ये भी कहा कि रात को यही रुकिए, खाना बनाइये, सारी व्यवस्था है यहाँ.एन्जॉय कीजिये.इस दौरान राजबहादुर से नीरज ने भीम गुफा की बात की.उन्होंने रास्ता बता दिया साथ ही ये भी कहा कि मालिक के जाने पर मैं आपको दिखा दूंगा.

चूनु बाबू को भूख लग चुकी थी. वो अब चलते को बोल रहे थे.हम लोग ढेर सारे आलू के पराठे लाये थे जो कि आराम फ़रमा रहे लोगों के पास थे.मैंने कहा भाई अब चलते हैं चुन्नू बाबू को भूख लग गयी. राजबहादुर ने कहा यही खा लो हमने साग बनाये हैं और चावल.मैंने कहा ले आओ.फिर क्या चुन्नू बाबू साग भात खाकर मस्त हो गए.बोले मजा आ आगया.थोड़ा मैंने भी चखा.अप्रतिम.अद्भुत था.ग़ज़ब का ज़ायका. भीम गुफा वाली बात फार्म मालिक भी सुन चुके थे.बोले गुफा में सालों भर बर्फ रहती थी लेकिन 2 साल से बर्फ न पड़ने के कारन अभी बर्फ नहीं है.बहादुर दिखा देगा आपको.
थोड़ी देर में राजबहादुर अपने मालिक के साथ और हमलोग भी चल पड़े.बहादुर और हमलोग भीम गुफा की ओर बाक़ी लोग धराली की ओर.भीम गुफा पास में ही थी.अंदर बेहद ठंडा. नीरज तो आरपार भो हो आये.और बोले चलो सबको बताता हूँ.राजबहादुर भी वापिस चले गए.
बाक़ी जनता हमारा इंतज़ार कर रही थी.बेटी सो चुकी थी.उसे जगाया गया.उठते ही उसने खाने की फरमाइश की.हमने एक पराठा रोल करके दे दिया.चावल साग की भी चरचा हुई.सबने कहा भाई अकेले अकेले खा आये और हम सभी भूखे इंतज़ार कर रहे हैं.उन्हें बताया गया कि केवल चुन्नू बाबू ही खाये हैं.तब जाकर सबको संतोष हुआ.इतने में राजबहादुर भी आ गए.मालिक का सामान लेकर धराली जा रहे थे.सबने साग खाने की इच्छा जताई.बहादुर ने कहा-अभी तो बहुत चावल साग रखे हैं.चलिए खा लीजिये.फिर क्या सभी फिर से फार्म.चावल साग खाकर तृप्त.फोटोग्राफी.आराम.वगैरह वगैरह.चुन्नू बाबू का सर भी दुःख रहा था.तो वो आराम भी कर लिए आँख मूंदकर. ये भी निर्णय लिया गया कि इस निःस्वार्थ सेवा के लिए बहादुर को कुछ देना बनता है.नीरज ने कुछ दे भी दिया.कितना, हमें नहीं पता.मौज करते करते लगभग 4 बज गए थे और अभी 2 ताल बाकी थे देखने के लिए.7 तालों में 4 रस्ते पर हैं बाकी इधर उधर.हमारा प्लान चौथे ताल तक ही जाने का था.नीरज ने कहा कि बाकी दो ताल हैं तो पास में लेकिन उन्हें देखकर आने में 1 घंटा तो लग ही जायेगा.अजय जी हड़बड़ी में थे कि भाई जल्दी चलो.चारों ताल देखने हैं.लेकिन बाकी किसी की बहुत इच्छा नहीं थी.वापसी हुई.भीम गुफा गए.सबने आरपार किया.अजय भाई गुफा देखने नहीं गए.वो आगे के दो ताल देखने चले गए.भीफ गुफा देखते देखते 4:30 बज गए.और थोड़ी बूंदा बांदी भी शुरू हो गए.हुक्म ये हुआ कि मौसम ख़राब हो सकता है.इसलिए हमें जल्दी से नीचे उतर जाना चाहिए.अजय भाई को मना लिया गया.
अरे हाँ रास्ते में जंगली चेरी थी.हमने चुन चुन कर खाये.बड़ा मजा आया.बच्चों को रेनकोट पहनाये और चल पड़े  धराली की ओर...


स्कूल के पास का एक पेड़ - कभी हम भी हरे भरे थे

स्कूल के पास ही एक भोजपत्र का पेड़ था.प्राकृतिक काग़ज़.इसकी छाल बेहतरीन कागज़ की तरह होती है.अभी भी कई ग्रंथों की पांडुलिपियां भोजपत्र पर लिखी हुई संग्रहीत हैं.

हनुमान जी और थके हारे उमेश साहब.
दीप्ति जी - परिचय की ज़रुरत नहीं-बस नाम ही काफी है.


बिटिया रानी बड़ी सयानी


और ये पानी का पाइप जहाँ हमने पानी भरीं
पिचर प्लांट(कीड़े खाने वाला पौधा) जैसा
आओ जी पानी भरा जाय - पहले बोतल ख़तम करो फिर भरो.

ऐसे कितने नज़ारे नज़रों से गुज़रे
यहाँ कुछ आग वाग से लगा रखी थी किसी ने 
उमेश जी का फेवरेट पोज़
यत्र तत्र सर्वत्र

पहुँच गए पहले ताल पर-अजय जी - पेट कुलबुला रहा है भूख लग गयी.  

रूद्र हनुमान-हालाँकि हमने इनका रौद्र रूप कभी नहीं देखा
चुन्नू बाबू


पहला ताल थोड़े ऊपर से
मुसाफिर हूँ यारो
बस थोड़े ऊपर और
फ़र्न
जंगली फूल - लग रहा है जैसे कोई कीड़ा खाने जा रहा हो 
बाड़ के अंदर राजमा के खेत
मदमस्त कर देने वाली हरियाली
जिधर नज़र घुमाओ उधर
छोटा ट्रैक्टर
बताना पड़ेगा क्या ...

बहुत भूख लगी है. चलो न यहाँ से
छानी के पास. फार्म के मालिक(नाम नहीं मालूम) अपने दोस्तों के साथ 
भीम गुफा के अंदर जाते मुसाफिर
राजबहादुर जी - इन्होने हम सबको चावल साग खिलाया

बाग़ के अंदर
जंगली चेरी चुनते हुए
और ये वापसी.थोड़ी बूंदाबांदी थी इसलिए सर ढँक लिया
वापसी
अब जाके लगा असली हनुमान जी हैं राणा साहब
हनुमान जी ने हमारी ली तस्वीर - जिन भी फोटो पर टाइम स्टाम्प ब्राउन कलर का है वो फोटोग्राफ रूद्र हनुमान(अमित राणा) जी के हैं
पानी के पाइप के पास आराम
पानी के पाइप के पास आराम
बेटी पिचर प्लांट को धरासायी करते हुए.क्यूंकि ये कीड़े को खा जाता है.

धराली गाँव से मुखबा और भागीरथी

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