रविवार, अक्तूबर 30, 2011

हमारी अंटरिया पे आजा रे संवरिया


हमारे एक सीनियर राजीव श्रीवास्तव हैं.कॉलेज के दिनों में उनका एक जबरदस्त गाना था जिसके बिना कोई भी प्रोग्राम अधूरा रहता था.
स्मरण के आधार पर यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ.

हमारी अंटरिया पे आजा रे संवरिया
देखा देखि तनिक होई जाए.
नैन लड़ जइहें, नज़र मिल जइहें 
सब दिन का झगडा ख़तम हो जाए.

हम तो हैं भोले जग है जुल्मी
इश्क को पाप कहत हैं अधर्मी,
जग हंसिहें तो कुछ  होइहें
तू हंसिहौं तो जुलम होई जाए.

हमारी अंटरिया पे आजा रे संवरिया
देखा देखि तनिक होई जाए.

कसौली और चंडीगढ़

यह यात्रा 2011 में कभी की गयी थी 














जगजीत सिंह की याद में...


"उन्हें ये जिद कि मुझे देखकर किसी को न देख.
मेरा ये शौक कि,सबसे कलम करता चलूँ.

इधर से गुज़रा था सोचा सलाम करता चलूँ.
हुज़ूर आपका भी एहतराम करता चलूँ."

"ये बता दे मुझे जिंदगी
प्यार की राह के हमसफ़र 
बन गए किस तरह अजनबी
ये बता दे मुझे जिन्दगी."

"तेरी नज़रों से गिराने के लिए जाने हया.
मुझको मुजरिम भी बना देंगे तेरे शहर के लोग."

"दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहाँ होता है,
सोच समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला."

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