शुक्रवार, दिसंबर 16, 2011

चेन्नई में लुंगी की तात्कालिक सार्थकता

आजकल चेन्नई में बारिश का मौसम है.हमारे एक मित्र अभी अभी गुडगाँव से चेन्नई आये हैं.कह रहे थे यार यहाँ की हालत भी काफी ख़राब है.थोड़ी देर की बारिश में यहाँ भी गुडगाँव की तरह घुटनों तक पानी भर जाता है.बाकि सब तो ठीक,घुटनों तक पानी में पैंट भी उतनी ऊपर नहीं हो सकती.मोटरसाइकिल के बंद होने का खतरा है.लेकिन यहाँ के लोगों को कोई दिक्कत नहीं होती.
मैंने पूछा - वो कैसे?
बोले बिंदास, लुंगी उठाई और चल पड़े पानी में.
हम तो पैंट मेहनत करके सरका भी लें तो भी उतने गंदे पानी में चल नहीं सकते.
मेरी आँख खुल गयी.लुंगी की कितनी जरूरत है यहाँ.पुरखों ने बड़ी सोच समझकर परिधान बनाये थे.जानते थे-आने वाले बेवकूफ घर बनायेंगे लेकिन नालियों में कूड़ा  करकट भर देंगे.झीलों को पाटकर घर बनायेंगे और उसी झील का पानी जब घर में घुसेगा तो लुंगी तो उठानी ही पड़ेगी.हा हा हा हा... 

शुक्रवार, दिसंबर 02, 2011

यह कदम्ब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे

यह कदम्ब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे
मै भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे
ले देती यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली
किसी तरह नीची हो जाती यह कदम्ब की डाली

तुम्हे नहीं कुछ कहता, पर मै चुपके चुपके आता
उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता
वही बैठ फिर बड़े मजे से मै बांसुरी बजाता
अम्मा-अम्मा कह बंसी के स्वर में तुम्हे बुलाता

सुन मेरी बंसी माँ, तुम कितना खुश हो जाती
मुझे देखने काम छोड़कर, तुम बाहर तक आती
तुमको आती देख, बांसुरी रख मै चुप हो जाता
एक बार माँ कह, पत्तो में धीरे से छिप जाता

तुम हो चकित देखती, चारो ओर ना मुझको पाती
व्याकुल-सी हो तब कदम्ब के नीचे तक आ जाती
पत्तो का मरमर स्वर सुन, जब ऊपर आँख उठाती
मुझे देख ऊपर डाली पर, कितना घबरा जाती

गुस्सा होकर मुझे डांटती, कहती नीचे आ जा
पर जब मै ना उतरता, हंसकर कहती मून्ना राजा
नीचे उतरो मेरे भैया, तुम्हे मिठाई दूंगी
नए खिलौने-माखन-मिश्री-दूध-मलाई दूंगी

मै हंसकर सबसे ऊपर की डाली पर चढ़ जाता
वही कही पत्तो में छिपकर, फिर बांसुरी बजाता
बुलाने पर भी जब मै ना उतारकर आता
माँ, तब माँ का ह्रदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता

तुम आँचल फैलाकर अम्मा, वही पेड़ के नीचे
ईश्वर से विनती करती, बैठी आँखे मीचे
तुम्हे ध्यान में लगी देख मै, धीरे-धीरे आता
और तुम्हारे आँचल के नीचे छिप जाता

तुब घबराकर आँख खोलती और माँ खुश हो जाती
इसी तरह खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे
यह कदम्ब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे
मै भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे


-सुभद्राकुमारी चौहान

बुधवार, नवंबर 23, 2011

जगजीत सिंह की याद में...

उठा सुराही ये शीशा-ओ-जाम ले साकी


उठा सुराही ये शीशा-ओ-जाम ले साकी

फिर उसके बाद खुदा का भी नाम ले साकी

उठा सुराही ये शीशा-ओ-जाम ले साकी



फिर उसके बाद हमें तिशनगी रहे न रहे

कुछ और देर मुरौव्वात काम से काम ले साकी

उठा सुराही....



फिर उसके बाद जो होगा वो देखा जायेगा

अभी तो पीने पिलाने से काम ले साकी

उठा सुराही...



तेरे हुज़ूर में होशो-खिरद से क्या हाशिल

नहीं मय तो निगाहों से काम ले साकी

उठा सुराही ये शीशा-ओ-जाम ले साकी

बुधवार, नवंबर 16, 2011

कबीर-माया महा ठगनी हम जानी

माया महा ठगनी हम जानी।।
तिरगुन फांस लिए कर डोले
बोले मधुरे बानी।।
 
केसव के कमला वे बैठी
शिव के भवन भवानी।।
पंडा के मूरत वे बैठीं
तीरथ में भई पानी।।

योगी के योगन वे बैठी
राजा के घर रानी।।
काहू के हीरा वे बैठी
काहू के कौड़ी कानी।।

भगतन की भगतिन वे बैठी
बृह्मा के बृह्माणी।।
कहे कबीर सुनो भई साधो
यह सब अकथ कहानी।।

जीवन-दर्शन



स्याह रात है साया तो हो नहीं सकता,
फिर ये कौन है जो साथ-साथ चलता है



घर  घर  दोलत  दीन  ह्वै,  जन जन जाँचत जाय|
दिए लोभ चश्मा चखनि , लघु पुनि बड़ो लखाय।|

रविवार, नवंबर 06, 2011

नर हो न निराश करो मन को

नर हो न निराश करो मन को
कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रहके निज नाम करो ।
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो ।
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को ।।

संभलो कि सुयोग न जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना ।
अखिलेश्वर है अवलम्बन को
नर हो न निराश करो मन को ।।

जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहां
फिर जा सकता वह सत्त्व कहां
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो ।
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को ।।

निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे।
सब जाय अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे ।
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो न निराश करो मन को ।।

(मैथली शरण गुप्त)

रविवार, अक्तूबर 30, 2011

हमारी अंटरिया पे आजा रे संवरिया


हमारे एक सीनियर राजीव श्रीवास्तव हैं.कॉलेज के दिनों में उनका एक जबरदस्त गाना था जिसके बिना कोई भी प्रोग्राम अधूरा रहता था.
स्मरण के आधार पर यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ.

हमारी अंटरिया पे आजा रे संवरिया
देखा देखि तनिक होई जाए.
नैन लड़ जइहें, नज़र मिल जइहें 
सब दिन का झगडा ख़तम हो जाए.

हम तो हैं भोले जग है जुल्मी
इश्क को पाप कहत हैं अधर्मी,
जग हंसिहें तो कुछ  होइहें
तू हंसिहौं तो जुलम होई जाए.

हमारी अंटरिया पे आजा रे संवरिया
देखा देखि तनिक होई जाए.

कसौली और चंडीगढ़

यह यात्रा 2011 में कभी की गयी थी 














जगजीत सिंह की याद में...


"उन्हें ये जिद कि मुझे देखकर किसी को न देख.
मेरा ये शौक कि,सबसे कलम करता चलूँ.

इधर से गुज़रा था सोचा सलाम करता चलूँ.
हुज़ूर आपका भी एहतराम करता चलूँ."

"ये बता दे मुझे जिंदगी
प्यार की राह के हमसफ़र 
बन गए किस तरह अजनबी
ये बता दे मुझे जिन्दगी."

"तेरी नज़रों से गिराने के लिए जाने हया.
मुझको मुजरिम भी बना देंगे तेरे शहर के लोग."

"दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहाँ होता है,
सोच समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला."

    ...........

मंगलवार, अगस्त 23, 2011

चेन्नई डायरी

आजकल चेन्नई में हूँ..चेन्नई से जुडी कुछ बातें बताता रहूँगा..

 काफी खोजबीन के बाद आज मैंने हिंदी अख़बार "राजस्थान पत्रिका" चेन्नई में ढूंढ निकाला(२४-०८-११).
आपने किसी गाडी को धक्का लगते देखा है?देखा ही होगा..आप कहेंगे ये तो आम बात है..लेकिन अगर मैं ये कहूं  की आपने ट्रेन को धक्का लगते देखा है तो आप क्या कहेंगे?मेरा दिमाग सनक गया है..लेकिन नहीं..भारत में एक ऐसा भी रेलवे रूट है जहाँ ट्रेन को धक्का लगाना पड़ता है.जी हाँ.ये स्टेशन इटारसी से नागपुर के बीच पड़ता है.धाराखोह-ये स्टेशन एक छोटा सा स्टेशन है.लेकिन आप यहाँ 4 -5 ट्रेन के इंजिन देख सकते हैं..दरअसल यहाँ सभी ट्रेन में 2  इंजिन जोड़ दिए जाते हैं ..वो भी पीछे से.और ट्रेन को धक्का लगाते हैं.भाई जबरदस्त चढ़ाई जो है.बेचारा एक इंजिन ट्रेन को खींच नहीं पाता.फिर ये दोनों इंजिन अगले स्टेशन -मरमझिरी में अलग कर दिए जाते हैं.चाहे कोई भी ट्रेन हो यहाँ रूकती जरूर है.हैं न मजेदार बात.. 

शुक्रवार, अगस्त 19, 2011

जीवन की आपाधापी में

एक अरसा गुजर गया कुछ लिखे हुए.
इसलिए..मन की अभिव्यक्ति को बच्चन जी एक मशहूर कविता द्वारा व्यक्त कर रहा हूँ.
 
जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोंच सकूँ,
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

जिस दिन मेरी चेतना जगी मैने देखा
मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में,
हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भूला
हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले मे
कुछ देर रहा हक्का बक्का, भौचक्का-सा,
आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा?
फिर एक तरफ़ से आया ही तो धक्का-सा
मैने भी बहना शुरू किया उस रेले में,
क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,
जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा,
जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
जो कहा, वही मन के अन्दर से उबल चला,

जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ,
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा-भला।
मेला जितना भडकीला रंग-रंगीला था,
मानस के अन्दर उतनी ही कमज़ोरी थी,
जितना ज़्यादा संचित करने की ख़्वाहिश थी,
उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,
जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,
उतना ही रेले तेज़ ढकेले जाते थे,
क्रय-विक्रय तो ठण्डे दिल से हो सकता है,
यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी,
अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊँ
क्या मान अकिंचन बिखराता पथ पर आया,
वह कौन रतन अनमोल मिला ऐसा मुझको,
जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,
यह थी तकदीरी बात मुझे गुण दोष न दो
जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,
जिसको समझा था आँसू, वह मोती निकला।

जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोंच सकूँ,
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा-भला।
मैं कितना ही भूलूँ, भटकूँ या भरमाऊँ,
है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,
कितने ही मेरे पाँव पडे ऊँचे-नीचे,
प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,
मुझ पर विधि का आभार बहुत-सी बातों का।
पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा--
नभ ओले बरसाये, धरती शोले उगले,
अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,
मैं जहाँ खडा था कल उस थल पर आज नही,
कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,
ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं
केवल छूकर ही देश-काल की सीमाएँ
जग दे मुझपर फ़ैसला उसे जैसा भाए
लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के
इस एक और पहलू से होकर निकल चला।

जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोंच सकूँ,
जो किया, कहा, माना उसमें क्या भला-बुरा।