मंगलवार, मई 25, 2010

सुनहरा शहर - जैसलमेर (2 )

जैसलमेर के लिए हमारा प्लान ये था कि हमलोग खुरी या सम में रुकेंगे.जी हाँ ये दोनों गाँव हैं जो कि जैसलमेर शहर से 40 - 50 किलोमीटर दूरी पर हैं.फिर हमने दिन के लिए रेलवे के रिटायरिंग रूम बुक किये.नहाया धोया और एक टैक्सी वाले से बात की.उसने प्रतिदिन 1000 रुपये के हिसाब से बात की.फिर वो ले गया गडिसर लेक.जी हाँ झील तो कुछ हैं नहीं..फिर भी लोग आते हैं.ये झील राजाओं द्वारा पेय जल के लिए बनवाई गयी थी.अब लगभग सूखने के कगार पर है.खैर हमने कुछ फोटो लिए और आगे बढे.


हम पंहुचे हनुमान चौक.ये वो जगह है जहाँ के बाद टैक्सी नहीं जाती.हम उतरे और फिर सोनार किला देखने गए.विशालकाय किला है.यही किला रेलवे स्टेशन से दिखता है.सब सूरज की रौशनी पड़ती है तब सोने की तरह चमक उठता है.इसलिए इसे सोनार किला कहते हैं.किले के अन्दर वही चीजें थीं जो राजस्थान के हर किलों में होती है.

किले के ऊपर से जैसलमेर का दृश्य

किले के ऊपर से जैन मंदिर का दृश्य

ज्ञान की बात - किले के अन्दर भी लोगों के मकान हैं.सारा किला मजबूत चाहरदिवारी से घिरा है. कहते हैं-पहले सारा जैसलमेर शहर इसी घेरे के अन्दर था.कालांतर में शहर का विस्तार हुआ और बाहर भी घर बन गए. जैसलमेर किसी ज़माने में बहुत बड़ा व्यापारिक केंद्र हुआ करता था.यहाँ हजारों में व्यापारी प्रतिदिन आते थे.तरुण भारत मंच वाले राजेंद्र जी कहते हैं की तब यह शहर इतने लोगों को पानी पिलाने में सक्षम था.हमने अपने पारंपरिक जल व्यवस्था को तहस नहस कर दिया और आज सारे भारत में जल समस्या व्याप्त है.

काम की बात - ज्यादातर जगहों पर किलों के अन्दर की दुकानों में सामान मंहंगा मिलता है.वही सामान बाहर ज्यादा सस्ता मिलता है.

उसके बाद हम लोग रजा का पैलेस देखने गए .छोटा है किन्तु सुन्दर है.ज्यादातर भाग में यहाँ भी होटल विकसित हो चुका है.
राजा का पैलेस

फिर हम गए पटवों की हवेली.ये हवेलियाँ यहाँ के साहुकारो की थीं.पर हैं बड़ी शानदार.तब तक 2 बज चुके थे .
हमने खाना खाया.और चल पड़े खुरी की और.वहां हमने पहले से ही "बादल हाउस" के बादल सिंह जी से बात कर ली थी.उन्होंने बड़े गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया.पहले बादल सिंह जी ऊँट चलते थे.अब अपने घर के 2 - 3 कमरों को रेस्ट हाउस बना दिया है.बड़ी साधारण व्यवस्था है.खाना एकदम राजस्थानी.घर का.खैर हम वहां पहुंचे थे 5 बजे .जाते ही बादल सिंह जी ने ऊँट की व्यवथा कराइ.और हम चले रेगिस्तान घूमने.वहां मजा आ गया.कुछ फोटो भी खीचे.




खुरी की कुछ तस्वीरें

रात हम 8 बजे खाकर सो गए.सुबह हमें सम जाना था.हमारा ड्राईवर भी कहीं ठहर गया था.सुबह हम सम पहुंचे .अविस्मरनीय दृश्य था.



कुछ और किन्तु बाद में...

गुरुवार, मई 06, 2010

सुनहरा शहर - जैसलमेर

सुनहरा शहर - जैसलमेर

चलते हैं - जैसलमेर..हाँ जी वही जिसे सुनहरा शहर कहते हैं .जहाँ सोनार किला है.और भी बहुत कुछ है..बात पिछले साल पहली जनवरी की है.पहली जनवरी आने वाली थी..श्रीमती ने कहा कहीं घूमने चला जाय..फिर बहुत सोच विचारकर जैसलमेर चलने का प्लान बनाया गया.टिकट चेक किया तो पता चला कि एक भी सीट खाली नहीं है.एक ही ट्रेन है-डेल्ही जैसलमेर एक्सप्रेस,जिसे लोग इंटरसिटी भी कहते हैं.फिर क्या करें.जैसलमेर का रूट देखा.बीच में जोधपुर पड़ता है.जोधपुर का टिकट मंडोर एक्सप्रेस में उपलब्ध था.मैंने अपने एक मित्र मनोज को कहा जैसलमेर घूमने के लिए.मनोज ने भी अपनी धर्मपत्नी से पूछकर जैसलमेर के लिए हामी भर दी.फिर क्या हम लोग ने टिकट करा लिया-दिल्ली से जोधपुर..फिर रात को जोधपुर से जैसलमेर.वापसी सीधे जैसलमेर से दिल्ली.
31 की रात को हमलोग मंडोर एक्सप्रेस से जोधपुर के लिए चल पड़े और सुबह 8 बजे पहुंचे .घना कुहरा होने के कारण ट्रेन काफी लेट हो चुकी थी.फिर भी हमें क्या..रात को जैसलमेर के लिए निकलना था..फिर बात हुई की ठहरें कहाँ..हमने कहा कि दिनभर तो जोधपुर घूमना है..रात को जैसलमेर के लिए ट्रेन पकड़ना है.क्यूँ न रेलवे का रिटायरिंग रूम देखा जाय.चेक करने पर पता चला कि एक 4 बेड रूम खाली है.तुरंत बुक किया और नहाना धोना चालु.12 बजे तक तैयार हुए.आप सोच रहे होंगे कि आखिर इतनी देर कैसे हुई..भाई हमारे साथ हमारी बीवियां भी थीं.
जोधपुर रेलवे स्टेशन

फिर तलाश हुई एक गाड़ीवाले की.बड़ी तोलमोल करने बाद एक बंद 500 रुपये में दिनभर घुमाने को तैयार हुआ.हमारा सबसे पहला पड़ाव था-उमेद भवन पैलेस.अभूतपूर्व...कभी ऐसा देखा नहीं था. लेकिन अफ़सोस कि पैलेस का केवल एक तिहाई भाग ही आम लोगों के लिए खुला है. बाकी हिस्सा ओबराय होटल है और जोधपुर नरेश का निवास है. हमारे ड्राईवर ने बताया कि जब जोधपुर की रियासत में भीषण अकाल पड़ा था तब राजा ने इस महल का निर्माण कराया था. मेहनताना के तौर पर केवल खाना दिया जाता था. चलो जी ये तो रही ज्ञान की बात. आगे बढ़ते हैं .

      मेरी धर्मपत्नी और शौर्य -उमेद भवन तो है ही

उसके बाद हमलोग गए मेहरानगढ़ किला. जी हाँ .देखकर लगता है की सुरक्षा के कितने कड़े इंतज़ाम रहे होंगे. किला बहुत ही ऊंचाई पर है .इसलिए थोड़ी ताकत हो तो जांय.अन्यथा लिफ्ट की सुविधा उपलब्ध है.खैर हमलोग पैदल ही गए.हालत ख़राब हो गई..बच्चे को लेकर चढाने में. खैर किला देखकर मजा आ गया.विस्तार से वर्णन नहीं करूंगा .आप जाइये और खुद भारत के विशाल इतिहास के प्रतीक को देखिये. एक वाक्य में इतना ही कहूँगा कि-"इस किले को देखने के बाद बाकी सारे किलों में मजा कम आएगा."
किले के सामने है-जसवंत थड़ा.थड़ा यहाँ किसी कि स्मृति में बनवाए गए स्मारक को कहते है .ये भी कोई राजा ही रहे होंगे.यहाँ से उमेद भवन पैलेस ताजमहल सा दिखता है.

यहाँ से उमेद भवन ताजमहल सा दिखता है
अबतक शाम हो गई थी.वापस स्टेशन आ गए.सामने एक अच्छे से रेस्टोरेंट में खाना खाया.जैसलमेर की गाडी 11 बजे थी.हमारा टिकेट कन्फर्म हो गया था.गाडी चली 12 बजे.हम अभी सोए ही थे कि एक आवाज आई ..यात्री गण कृपया ध्यान दें-जैसलमेर स्टेशन आपका स्वागत करता है. जी हाँ 5 बज चुके थे. हमलोग जैसलमेर आ चुके थे..सुनहरी नगरी का किस्सा .अगली बार .

बुधवार, मई 05, 2010

कुछ शेरो शायरी..

टीवी लगभग रोज ही देखता हूँ.आज दूरदर्शन पर नज़र फिसल गयी.घर-मकान जैसे कुछ शब्द सुनाई पड़े.फिर मैंने नज़र गड़ाई और कार्यक्रम देखने लगा.शेरो शायरी के अलावा गाने भी जबरदस्त लगे.पेश है चंद शेर जिन्हें मैं लिख पाया-

"पहले बड़े शान से रहते थे लोग मकानों में.
अब लोगों के दिलो जाँ में मकान रहते हैं."

"मेरे छप्पर के मुकाबिल है आठ मंजिल का मकान
ये मेरे हिस्से की शायद धूप भी खा जाएगा."

"शज़र जब हक निभाना छोड़ देते हैं
परिंदे आशियाना छोड़ देते हैं,
कुछ ऐसे परिंदे हैं अना वाले
कफ़स में आबोदाना छोड़ देते हैं."

"जिससे दब जाएँ कराहें घर की
कुछ न कुछ शोर मचाये रखिए."

"पापा पहले तो डाटेंगे
फिर बोलेंगे हाँ,ला देंगे,
आज फिर हुआ है घर में झगडा
जो मम्मी देंगी,खा लेंगे."

ऐसे अनेक शेर बड़ी दिनों बाद सुनने को मिले.हाँ अफ़सोस ..मैं सारे लिख नहीं पाया.क्या करूँ..खिटिर पिटिर की आदत में लिखना भूल सा गया हूँ.