शनिवार, अक्तूबर 30, 2010

रहमान मियां..

जहाँ तक बस जाती है वहां से मेरा गाँव एक-डेढ़ किलोमीटर दूर है.पैदल जाना पड़ता है.एक बार ऐसे ही पैदल जाते हुए ,गाँव से थोड़ी दूर पर साथ चलते हुए एक चेहरे पर नज़र पड़ी.बूढा शरीर ,बाल सफ़ेद ,काँख में छाता लिए,छोटा कुरता और और घुटने से ऊपर की मैली धोती पहने.पहचानने में देर नहीं लगी-ये थे हमारे ही गाँव के रहमान मियां.

मैंने उन्हें प्रणाम किया-पालागी बाबा .रहमान मियां बोले खुश रहो बेटा ,कौन हो पहचान नहीं पाया,आँखें कमजोर हो गयी हैं.मैंने अपना परिचय दिया-बोले-अरे संजे..का हाल बा बचवा..बाबूजी कैसे हैं..बाल-बच्चे?सब कुशल मंगल?भैया कैसे हैं.घर के सभी सदस्यों का हाल चाल इतनी आत्मीयता से शायद खुद घरवाले भी नहीं पूछते."बेटा..नगीना-मुन्नी भैय्या चले गए,तुमलोग शहर रहने लगे..साथ छूट गया..नहीं तो....."

यही सब कहते सुनते गाँव आ गया और मैंने अपने घर की और रहमान मियां ने अपने घर की गली पकड़ ली.आप सोच रहे होंगे कि मैं ये बेतुकी बात क्यूँ कर रहा हूँ..ऐसा तो होता रहता है.मैं आपको याद दिला दूं कि अभी कुछ दिन पहले भारत में एक ऐतिहासिक न्यायिक फैसला हुआ.जी हाँ ..बाबरी मस्जिद - राम मंदिर का..दूसरे शब्दों में - अयोध्या विवाद .रहमान मियां उसी की एक बानगी हैं.ऐसा नहीं कि कहानी नई है.बस पात्र बदल रहा हूँ.

जब हम छोटे थे ,हमें किसी ने नहीं सिखाया कि ये मियां हैं इसलिए इनसे बात नहीं करनी.इनसे मिलना जुलना मना है.रहमान मियां और मेरे बाबा(दादाजी) पक्के दोस्त थे.हम रहमान मियां को भी बाबा ही बुलाते थे और पैर छूकर प्रणाम करते थे.जब हमारे मामा ने आंटे और तेल की चक्की खोली थी तब रहमान बाबा ने अपना घर दिया था.हर छोटे बड़े काम में दोनों परिवार साथ होते थे.बात सिर्फ दो परिवारों की नहीं..समूची मुस्लिम बिरादरी दशहरे का आनंद उठाती और सभी हिन्दू पूरे शिद्दत से ताजिया के दिन "या-हुसैन" बोलते थे.

फिर हम थोड़े बड़े हुए.और शहर आ गए.नुक्कड़ों पर उमा भारती के भड़कीले भाषण बजने लगे.रामायण के मर्यादापुरुषोत्तम राम की छवि "युधवीर" की होने लगी."कसम राम की खाते हैं हम मंदिर वहीं बनायेंगे" के कैसेट हर जगह बजने लगे.युग का विघटन आरम्भ हुआ और हुआ-6 दिसम्बर 1992 को देश का सबसे बड़ा सांस्कृतिक विध्वंस.एक दार्शनिक ने यहाँ तक कहा"निहत्थी ईमारत पर आघात देश का क्रूरतम अध्याय है.इससे सिर्फ ईमारत ही नहीं,बुद्ध और महात्मा की सामाजिक और सांस्कृतिक ईमारत भी ढह गयी."समाज बंट गया.नए हिन्दू मुस्लिम बच्चे एक दूसरे को नफरत की निगाह से देखने लगे.दोस्ती ख़तम हो गयी.अमन चला गया.दिलों में दीवार बन गयी.अयोध्या की आग आम आदमी तक पहुँची.गाँव की गली गली गरम हो गयी.जिस "शहीद बाबा" पर हम हिन्दू जाकर माथा टेकते थे अब वो पत्थर का रोड़ा नज़र आने लगा.ताजिया के चबूतरे को लोगों ने तोड़ डाला.अयोध्या में 2000 लोग मारे गए लेकिन लाखों रहमान मियां का खून हुआ."Integrity in diversity " और संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता तार-तार हो गयी.

रहमान मियां अब भी हैं.अब वो रहमान बाबा या रहमान भाई न होकर रहमान मियां हो गए.दरजी मोहल्ला न होकर "कटुआ" मोहल्ला हो गया.ओफ्फ्फ..

समय बदला.रंजिशों पर परदा पड़ा.भूमंडलीकरण के युग ने लोगों को नजदीक किया.अयोध्या का ऐतिहासिक फैसला आया.फैसला चाहे जो भी हो...आपसी रंजिशों की गुंजाइश न हो,हर तरफ अमन हो हम यहीं चाहते हैं.या यूँ कहें..

" शायर हूँ कोई ताजा गज़ल सोच रहा हूँ,

मस्जिद में पुजारी हो मंदिर में मौलवी,

हो किस तरह मुमकिन ये जतन सोच रहा हूँ। "

आओ सभी मिलकर कहें -

आमीन !!!!

अंगूरी में डसले बिया नगिनिया...

ये गाना सुनना है...नीचे का लिंक क्लिक कीजिये..  
 

बुधवार, सितंबर 15, 2010

हिंदी ज्ञान

नीचे एक कहानी का कुछ अंश है.बताइए कहानी और कथाकार का नाम ..


जानवरों में गधा सबसे ज्यादा बुद्धिमान समझा जाता है। हम जब किसी आदमी को पहले दर्जे का बेवकूफ कहना चाहते हैं, तो उसे गधा कहते हैं। गधा सचमुच बेवकूफ है या उसके सीधेपन, उसकी निरापद सहिष्णुता ने उसे यह पदवी दे दी है, इसका निश्चय नहीं किया जा सकता। गायें सींग मारती हैं, ब्याही हुई गाय तो अनायास ही सिंहनी का रूप धारण कर लेती है। कुत्ता भी बहुत गरीब जानवर है, लेकिन कभी-कभी उसे भी क्रोध आ ही जाता है, किन्तु गधे को कभी क्रोध करते नहीं सुना, न देखा। जितना चाहो गरीब को मारो, चाहे जैसी खराब, सड़ी हुई घास सामने डाल दो, उसके चेहरे पर कभी असंतोष की छाया भी नहीं दिखाई देगी। वैशाख में चाहे एकाध बार कुलेल कर लेता है, पर हमने तो उसे कभी खुश होते नहीं देखा। उसके चेहरे पर स्थाई विषाद स्थायी रूप से छाया रहता है। सुख-दुःख, हानि-लाभ किसी भी दशा में उसे बदलते नहीं देखा। ऋषियों-मुनियों के जितने गुण हैं, वे सभी उसमें पराकाष्ठा को पहुँच गए हैं, पर आदमी उसे बेवकूफ कहता है। सद्गुणों का इतना अनादर!

रविवार, अगस्त 15, 2010

मेरे कैमरे के कुछ चित्र

कई दिनों से ब्लॉग पर कुछ नहीं लिखा.ऐसा नहीं कि विषय नहीं था.कई तो अच्छे विषय दिमाग में आये और चले भी गए.कुछ काम का बोझ.कुछ पारिवारिक उलझनों को लेकर ब्लॉगवार्ता बंद रही.आज जब थोड़ी फुर्सत मिली तो अपने आपको विषयविहीन पाया.इसलिए अपने कैमरे के कुछ चित्र लगा रहा हूँ.








क्या आप बता सकते हैं ये फोटू कहाँ के हो सकते हैं?

शुक्रवार, जून 11, 2010

सिलीसेढ़ की सैर

चलिए आज आपको सिलीसेढ़ की सैर कराते हैं..

वैसे मैं ये सैर काफी पहले कर चुका हूँ..पर आज सोचा आपको भी बता दूं ..

एक दिन श्रीमती ने कहा कि घूमने चला जाय.फिर बड़ी सोच विचार कर..और गूगल देवता से खोज खबर लेकर तय हुआ कि सिलीसेढ़ चला जाय और बोटिंग का आनंद लिया जाय.फिर क्या ..निकल पड़े सुबह सुबह अलवर के लिए.गुडगाँव के इफ्को चौक पहुंचा.थोड़ी देर में अलवर की बस आ गयी.और उसने साढ़े तीन घंटे में अलवर पंहुचाया.एक ऑटो वाले को बुक किया सिलीसेढ़ के लिए.150 रुपये लिए उसने झील पर पहुँचाने के.

वहां जाकर पता चला अन्दर जाने का 30 रुपये प्रति व्यक्ति चार्ज है.साथ में बोटिंग का अलग.और हाँ ये 30 रुपये यदि आप वहां के रेस्टोरेंट में खाते हैं तो बिल के साथ एडजस्ट हो जाते हैं.कहीं सुना है आपने ऐसा?वीकेंड पर भीड़ बहुत होती है.हमारी एक घंटे की वेटिंग थी बोट के लिए.फिर हमने बोटिंग का आनंद उठाया.मजा आ गया..

आइये अब आपको इस झील के बारे में बता दूं..

सिलीसेढ़ अलवर के पास एक झील है.अलवर राजस्थान का एक जिला है.सिलीसेढ़ अलवर से 13 किलोमीटर दूर है.यह अलवर सरिस्का मार्ग से 3 किलोमीटर अन्दर की तरफ है.यह एक मानव निर्मित झील है और राजस्थान के ज्यादातर झीलों की तरह पीने के पानी का संग्रह स्थल थी.

चलो जी बाकी फोटू देख लो..खूबसूरती खुद ब खुद समझ में आ जाएगी...










ये पता नहीं क्या है..पूछने पर भी किसी ने कुछ खास नहीं बताया..हाँ वहां जाना मना है..













ये लेक पैलेस होटल है.इसी के नीचे रेस्टोरेंट भी है.






मौज मस्ती करते करते 4 बज गए.. अब लौटने की बारी थी.हमने सोचा था कि कुछ न कुछ तो मिल ही जायेगा.लेकिन एक घंटे में कुछ नहीं मिला .पास के गाँव वाले बताये कि अब कुछ नहीं मिलेगा.एक बस अलवर जाती है लेकिन लगता है आज नहीं आएगी.आपलोग 3 किलोमीटर दूर मेन रोड पर चले जाइये वहां से कुछ न कुछ मिल जायेगा.खैर एक ट्रक्टर वाला दिखाई दिया.मेरे कहने पर वो रोड तक छोड़ने को तैयार हो गया.उठा पटक करते हुए रोड पर और फिर ऑटो से अलवर फिर गुडगाँव...


इसलिए जब भी सिलीसेढ़ जाइये अपने वाहन का इंतज़ाम जरूर रखिये.



गुरुवार, जून 03, 2010

दुबई वाले भाई..

पूर्ण गुलामी के प्रतीक इस सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री का मैं भी एक गुलाम हूँ.आइये गुलामी का एक बानगी पेश करता हूँ.साथ में एक दुबई वाले भाई की एक कहानी भी होगी.अभी कुछ दिन पहले क्लाइंट विजिट थी.client visit का मतलब जी बड़े आका आ रहे हैं.अब सब कुछ अच्छा दिखना चाहिए.बड़े आका में भी फिरंगी साहब हों तो क्या कहने.फिर तो उस दिन सब कुछ चमचमाती मिलेगी.डेस्क,चेयर से लेकर गुलामों के कपडे तक.खैर हमसे भी कहा गया कि फलाँ फलाँ के कपडे पहन कर आना है.कपड़ों पर जितनी मेलबाजी हुई उतनी अपने प्रोजेक्ट पर कभी नहीं हुई.

पूरी टीम का ड्रेस कोड एक ही होना चाहिए.खैर मैं भी पहुंचा.मीटिंग 3 बजे होनी थी.वैसे तो फिरंगी साहबों को लेट लतीफ़ की आदत नहीं होती किन्तु उस दिन मीटिंग शुरू हुई 4 :30 बजे.मेरी ट्रेन थी बनारस के लिए 6 :45 बजे शाम को.गुडगाँव से नई दिल्ली जाने में डेढ़ दो घंटे तो लगते ही हैं.मैंने अपने आका से कहा कि सर छोड़ दीजिये मेरी ट्रेन छूट जाएगी.गुलामों के सरताज ने कहा भाई उसके साथ तुम्हारी डाईरेक्टर भी आ रही है.केवल तुम्हे पहचानती है तुम नहीं रहोगे तो कैसा लगेगा.क्या होना था. आज्ञा सर माथे पर.मीटिंग शुरू हुई और ख़तम हुई 6 बजे.ट्रेन छूट गई.घर जाना जरूरी था.दूसरी ट्रेन की तलाश की.अगले दिन मिली.काशी विश्वनाथ एक्सप्रेस .मंथर गति से चलने वाली इस ट्रेन में दाखिल हो गया.बहुत कोसा अपने आप को.कहाँ गुलामी ख़तम हुई है.पहले अंग्रेजों के गुलाम थे अब अमेरिकन के.रोटी के निवाले तो उन्ही से मिलते हैं.चलो जी ये तो रही मन की भड़ास..आगे दुबई वाले भाई की कहानी..

मेरी सीट के सामने एक दुबई वाले भाई भी थे.मेरा मतलब है दुबई से आ रहे थे.ढेर सारा एयर लग्गेज देखकर मैं समझ गया.बातों से पता चला कि AC कोच में पहली बार बैठे हैं.AC का सुकून ये नहीं था कि गरमी नहीं है.बोले किराया 900 लिया है.3 - 4 सौ की बेडशीट तकिया तो होगी ही.कुल मिलाकर 4 -5 सौ किराया हुआ..कुछ खास बुरा नहीं है.दुबई में मजदूरी करते हैं.पूर्ण निरक्षर हैं.साथ में एक पढ़ने लिखने वाला लड़का भी मिल गया.मुझसे बात होने लगी.बस मुझे मौका मिल गया - ज्ञान बघारने का.खूब ज्ञान दी.शिव खेडा के दादाजी की तरह बहुत सकारात्मक सोच उस बच्चे में ठूंसने की कोशिश की.वैसे मेरा उद्देश्य बात वात करके कुछ समय काटने का था.

हमारी बातें उस दुबई वाले भाई को अच्छी नहीं लगी.बाकी सब तो ठीक लेकिन पढाई से उन्हें सख्त नफरत थी.पढाई करके लड़के लड़कियां बर्बाद हो जाते हैं.बोले मेरे भी दो बेटे दो बेटियां हैं.बेटों की शादी हो गयी है.फिर वही गाँव की दर्द भरी दास्तान.बच्चे मेरी नहीं सुनते.बच्चा जब पढता था तब बोला बाबूजी मेरे लिए कैमरा वाला मोबाइल लाना.400 दिरम का मोबाइल लाया था.बड़ा खुश था मैं बच्चे को खुश देखकर.आज दोनों बेटे बम्बई रहते हैं.बेटी की शादी है.दोनों कहते हैं-हमलोग नहीं आयेंगे.छोटा तो यहाँ तक कहता है कि मेरे माँ बाप हैं ही नहीं.फिर बहन कहाँ से हो गई.कहते कहते आँखें भाई आयीं उस दुबई वाले भाई की.चेहरे पर बेबसी और लाचारी साफ़ नज़र आ रही थी.अपार गर्मी में दिनभर काम करता हूँ दुबई में. भदोही में करोड़ों की जमीन खरीदी किसके लिए...कहते हैं माँ बाप मर गए..फिर झर झर आंसू.....सारे लोग सुनते रहे.उस पढने वाले लड़के ने ढाढस बंधाई.चलिए सब अच्छा होगा.अब क्या अच्छा होगा.पिता जनम देता है इस दिन के लिए.अपना पेट काट कर ..मजदूरी करके पढाया..और ये दिन.. फिर आंसू....

खैर गाँव के मजदूर परिवार की एक और कहानी...जो कि कुछ ख़ास नहीं लगी.बल्कि एक आम कहानी लगी.क्यूँकि भाई निरक्षर था इसलिए उसके दिमाग में गणित नहीं थी.दुःख सीधे सीधे बाहर आ रहा था.हम पढ़े लिखे हैं गणितबाज़ हैं.दुःख को जोड़ने घटाने की कला है हमारे पास.अनेक समस्याएँ चुपचाप सहने की आदत है..

इस सबके बीच.."अपनी डफली" को "अपना राग" मिल गया जो आपके समक्ष प्रस्तुत है.

मंगलवार, जून 01, 2010

सुनहरा शहर - जैसलमेर (3)

आगे की कहानी..चित्रों की जुबानी...

सम का सूर्योदय



रेगिस्तानी रास्ते - जिसपर लोग चलते हैं या ऊंटगाड़ी सरपट भागती है.

रेत के टीले..हर जगह मौजूद हैं..ये हवा के साथ एक जगह से दूसरे जगह बनते बिगड़ते रहते हैं.

हमारी ऊँट गाड़ी जिसपर हम लोग काफी दूर तक गए थे.

टोली टीले पर

हमारा वाहन चालक-रास्ते भर रेगिस्तान के बारे में बताता गया.ऊँट क्या खाता है. पाकिस्तान की फ़ौज कहाँ तक घुस आई थी.बोर्डर की शूटिंग कहाँ हुई थी.वगैरह वगैरह...

अब तक आप जान चुके होंगे ये कौन है.


ये दृश्य आम हैं..

जैन मंदिर

बड़ा बाग़
और फिर ..शाम तक स्टेशन पर..और डेल्ही वापसी..फिर से वही चिल्ल पों..पर क्या करें.जैसलमेर का सुकून पाने के लिए दिल्ली को तो बर्दास्त करना ही पड़ेगा.


हाँ जो चीज़ बुरी लगी...फोटोग्राफी चार्जेज कहीं भी 50 रुपये से कम नहीं है.

कुल मिलकर बहुत मजा आया..एक फिर जरूर जाऊँगा जैसलमेर..


मंगलवार, मई 25, 2010

सुनहरा शहर - जैसलमेर (2 )

जैसलमेर के लिए हमारा प्लान ये था कि हमलोग खुरी या सम में रुकेंगे.जी हाँ ये दोनों गाँव हैं जो कि जैसलमेर शहर से 40 - 50 किलोमीटर दूरी पर हैं.फिर हमने दिन के लिए रेलवे के रिटायरिंग रूम बुक किये.नहाया धोया और एक टैक्सी वाले से बात की.उसने प्रतिदिन 1000 रुपये के हिसाब से बात की.फिर वो ले गया गडिसर लेक.जी हाँ झील तो कुछ हैं नहीं..फिर भी लोग आते हैं.ये झील राजाओं द्वारा पेय जल के लिए बनवाई गयी थी.अब लगभग सूखने के कगार पर है.खैर हमने कुछ फोटो लिए और आगे बढे.


हम पंहुचे हनुमान चौक.ये वो जगह है जहाँ के बाद टैक्सी नहीं जाती.हम उतरे और फिर सोनार किला देखने गए.विशालकाय किला है.यही किला रेलवे स्टेशन से दिखता है.सब सूरज की रौशनी पड़ती है तब सोने की तरह चमक उठता है.इसलिए इसे सोनार किला कहते हैं.किले के अन्दर वही चीजें थीं जो राजस्थान के हर किलों में होती है.

किले के ऊपर से जैसलमेर का दृश्य

किले के ऊपर से जैन मंदिर का दृश्य

ज्ञान की बात - किले के अन्दर भी लोगों के मकान हैं.सारा किला मजबूत चाहरदिवारी से घिरा है. कहते हैं-पहले सारा जैसलमेर शहर इसी घेरे के अन्दर था.कालांतर में शहर का विस्तार हुआ और बाहर भी घर बन गए. जैसलमेर किसी ज़माने में बहुत बड़ा व्यापारिक केंद्र हुआ करता था.यहाँ हजारों में व्यापारी प्रतिदिन आते थे.तरुण भारत मंच वाले राजेंद्र जी कहते हैं की तब यह शहर इतने लोगों को पानी पिलाने में सक्षम था.हमने अपने पारंपरिक जल व्यवस्था को तहस नहस कर दिया और आज सारे भारत में जल समस्या व्याप्त है.

काम की बात - ज्यादातर जगहों पर किलों के अन्दर की दुकानों में सामान मंहंगा मिलता है.वही सामान बाहर ज्यादा सस्ता मिलता है.

उसके बाद हम लोग रजा का पैलेस देखने गए .छोटा है किन्तु सुन्दर है.ज्यादातर भाग में यहाँ भी होटल विकसित हो चुका है.
राजा का पैलेस

फिर हम गए पटवों की हवेली.ये हवेलियाँ यहाँ के साहुकारो की थीं.पर हैं बड़ी शानदार.तब तक 2 बज चुके थे .
हमने खाना खाया.और चल पड़े खुरी की और.वहां हमने पहले से ही "बादल हाउस" के बादल सिंह जी से बात कर ली थी.उन्होंने बड़े गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया.पहले बादल सिंह जी ऊँट चलते थे.अब अपने घर के 2 - 3 कमरों को रेस्ट हाउस बना दिया है.बड़ी साधारण व्यवस्था है.खाना एकदम राजस्थानी.घर का.खैर हम वहां पहुंचे थे 5 बजे .जाते ही बादल सिंह जी ने ऊँट की व्यवथा कराइ.और हम चले रेगिस्तान घूमने.वहां मजा आ गया.कुछ फोटो भी खीचे.




खुरी की कुछ तस्वीरें

रात हम 8 बजे खाकर सो गए.सुबह हमें सम जाना था.हमारा ड्राईवर भी कहीं ठहर गया था.सुबह हम सम पहुंचे .अविस्मरनीय दृश्य था.



कुछ और किन्तु बाद में...

गुरुवार, मई 06, 2010

सुनहरा शहर - जैसलमेर

सुनहरा शहर - जैसलमेर

चलते हैं - जैसलमेर..हाँ जी वही जिसे सुनहरा शहर कहते हैं .जहाँ सोनार किला है.और भी बहुत कुछ है..बात पिछले साल पहली जनवरी की है.पहली जनवरी आने वाली थी..श्रीमती ने कहा कहीं घूमने चला जाय..फिर बहुत सोच विचारकर जैसलमेर चलने का प्लान बनाया गया.टिकट चेक किया तो पता चला कि एक भी सीट खाली नहीं है.एक ही ट्रेन है-डेल्ही जैसलमेर एक्सप्रेस,जिसे लोग इंटरसिटी भी कहते हैं.फिर क्या करें.जैसलमेर का रूट देखा.बीच में जोधपुर पड़ता है.जोधपुर का टिकट मंडोर एक्सप्रेस में उपलब्ध था.मैंने अपने एक मित्र मनोज को कहा जैसलमेर घूमने के लिए.मनोज ने भी अपनी धर्मपत्नी से पूछकर जैसलमेर के लिए हामी भर दी.फिर क्या हम लोग ने टिकट करा लिया-दिल्ली से जोधपुर..फिर रात को जोधपुर से जैसलमेर.वापसी सीधे जैसलमेर से दिल्ली.
31 की रात को हमलोग मंडोर एक्सप्रेस से जोधपुर के लिए चल पड़े और सुबह 8 बजे पहुंचे .घना कुहरा होने के कारण ट्रेन काफी लेट हो चुकी थी.फिर भी हमें क्या..रात को जैसलमेर के लिए निकलना था..फिर बात हुई की ठहरें कहाँ..हमने कहा कि दिनभर तो जोधपुर घूमना है..रात को जैसलमेर के लिए ट्रेन पकड़ना है.क्यूँ न रेलवे का रिटायरिंग रूम देखा जाय.चेक करने पर पता चला कि एक 4 बेड रूम खाली है.तुरंत बुक किया और नहाना धोना चालु.12 बजे तक तैयार हुए.आप सोच रहे होंगे कि आखिर इतनी देर कैसे हुई..भाई हमारे साथ हमारी बीवियां भी थीं.
जोधपुर रेलवे स्टेशन

फिर तलाश हुई एक गाड़ीवाले की.बड़ी तोलमोल करने बाद एक बंद 500 रुपये में दिनभर घुमाने को तैयार हुआ.हमारा सबसे पहला पड़ाव था-उमेद भवन पैलेस.अभूतपूर्व...कभी ऐसा देखा नहीं था. लेकिन अफ़सोस कि पैलेस का केवल एक तिहाई भाग ही आम लोगों के लिए खुला है. बाकी हिस्सा ओबराय होटल है और जोधपुर नरेश का निवास है. हमारे ड्राईवर ने बताया कि जब जोधपुर की रियासत में भीषण अकाल पड़ा था तब राजा ने इस महल का निर्माण कराया था. मेहनताना के तौर पर केवल खाना दिया जाता था. चलो जी ये तो रही ज्ञान की बात. आगे बढ़ते हैं .

      मेरी धर्मपत्नी और शौर्य -उमेद भवन तो है ही

उसके बाद हमलोग गए मेहरानगढ़ किला. जी हाँ .देखकर लगता है की सुरक्षा के कितने कड़े इंतज़ाम रहे होंगे. किला बहुत ही ऊंचाई पर है .इसलिए थोड़ी ताकत हो तो जांय.अन्यथा लिफ्ट की सुविधा उपलब्ध है.खैर हमलोग पैदल ही गए.हालत ख़राब हो गई..बच्चे को लेकर चढाने में. खैर किला देखकर मजा आ गया.विस्तार से वर्णन नहीं करूंगा .आप जाइये और खुद भारत के विशाल इतिहास के प्रतीक को देखिये. एक वाक्य में इतना ही कहूँगा कि-"इस किले को देखने के बाद बाकी सारे किलों में मजा कम आएगा."
किले के सामने है-जसवंत थड़ा.थड़ा यहाँ किसी कि स्मृति में बनवाए गए स्मारक को कहते है .ये भी कोई राजा ही रहे होंगे.यहाँ से उमेद भवन पैलेस ताजमहल सा दिखता है.

यहाँ से उमेद भवन ताजमहल सा दिखता है
अबतक शाम हो गई थी.वापस स्टेशन आ गए.सामने एक अच्छे से रेस्टोरेंट में खाना खाया.जैसलमेर की गाडी 11 बजे थी.हमारा टिकेट कन्फर्म हो गया था.गाडी चली 12 बजे.हम अभी सोए ही थे कि एक आवाज आई ..यात्री गण कृपया ध्यान दें-जैसलमेर स्टेशन आपका स्वागत करता है. जी हाँ 5 बज चुके थे. हमलोग जैसलमेर आ चुके थे..सुनहरी नगरी का किस्सा .अगली बार .

बुधवार, मई 05, 2010

कुछ शेरो शायरी..

टीवी लगभग रोज ही देखता हूँ.आज दूरदर्शन पर नज़र फिसल गयी.घर-मकान जैसे कुछ शब्द सुनाई पड़े.फिर मैंने नज़र गड़ाई और कार्यक्रम देखने लगा.शेरो शायरी के अलावा गाने भी जबरदस्त लगे.पेश है चंद शेर जिन्हें मैं लिख पाया-

"पहले बड़े शान से रहते थे लोग मकानों में.
अब लोगों के दिलो जाँ में मकान रहते हैं."

"मेरे छप्पर के मुकाबिल है आठ मंजिल का मकान
ये मेरे हिस्से की शायद धूप भी खा जाएगा."

"शज़र जब हक निभाना छोड़ देते हैं
परिंदे आशियाना छोड़ देते हैं,
कुछ ऐसे परिंदे हैं अना वाले
कफ़स में आबोदाना छोड़ देते हैं."

"जिससे दब जाएँ कराहें घर की
कुछ न कुछ शोर मचाये रखिए."

"पापा पहले तो डाटेंगे
फिर बोलेंगे हाँ,ला देंगे,
आज फिर हुआ है घर में झगडा
जो मम्मी देंगी,खा लेंगे."

ऐसे अनेक शेर बड़ी दिनों बाद सुनने को मिले.हाँ अफ़सोस ..मैं सारे लिख नहीं पाया.क्या करूँ..खिटिर पिटिर की आदत में लिखना भूल सा गया हूँ.

बुधवार, अप्रैल 28, 2010

कष्ट कन्जर्वेसन ला

हमारे एक मित्र है - पंकज कुमार झा.हमारी मित्र मंडली उन्हें प्यार से झा जी ,झा, झाऊ, इत्यादि बुलाती है.एक दिन झाजी से गुडगाँव के गरमी की बात होने लगी.झा जी बोले यार बड़ी गरमी है .घर से ऑफिस जाता हूँ या घर लंच के लिए आता हूँ ..बड़ी कष्ट होता है ..मैंने कहा - कार ले लीजिये ..और कष्ट को ख़तम कर लीजिये .
इतने में झाजी जो की खट्टर काका से कम नहीं हैं -एक नए नियम का प्रतिपादन कर दिया .कष्ट कन्जर्वेसन ला .एनर्जी कांजर्वेसन ला से कुछ मिलता जुलता .कभी पढ़े थे -ऊर्जा कभी नष्ट नहीं होती केवल उसका रूपांतरण होता है .उसी तरह जीव का कष्ट कभी ख़तम न होने वाली बीमारी है .कष्ट का नाश नहीं हो सकता केवल रूप बदल जाता है .मैंने कहा -  वो कैसे झा जी ..बोले देखो ..अभी मैंने AC लगवाई .आराम तो मिल गया किन्तु महीने के बाद भारी बिजली के बिल का कष्ट अभी से है .कार ले लूँगा उसके बाद उसको रखने का कष्ट ..उसकी EMI का कष्ट .चोरी होने का डर .मतलब साफ है .कष्ट ने रूप बदल लिया .रहा उतना ही या कुछ ज्यादा हो गया .
मैंने कहा धन्य है झा जी .आपने एक नया नियम समझाया .मेरी आखें खुल गयीं .

रविवार, अप्रैल 25, 2010

अपनी डफली अपना राग: उजर बगुल बिना पीपरो न सोभे...

अपनी डफली अपना राग: उजर बगुल बिना पीपरो न सोभे...

उजर बगुल बिना पीपरो न सोभे...

बरसों बाद शारदा सिन्हा के कुछ गाने सुने ..उजर बगुल बिना पीपरो न सोभे कोयल बिना बगिया न सोभे राजा...पटना से बैद बोलाईद हो नजरा गईलीं गुइंयाँ..और भी दो तीन... फिर सदा की तरह सोचने लगा..क्या इन गानों की कोई सार्थकता आज भी बची है?अब गाँव की गोरी भी मोडर्न हो गई है.कुछ हो न हो मोबाइल जरूर रहता है.फिर सास ससुर के साथ रहने की परंपरा धीरे धीरे ख़तम हो रही है.फिर इन विरह के गानों का औचित्य.ऊपर से भोजपुरी ...जिसके गानों का सत्यानाश करने में कुछ लोगों कसर नहीं छोड़ी है..अत्यंत फूहड़ किस्म..


फिर क्या हम इन धरोहर गानों को भुला दें और आज के धक् धक् संगीत पर थिरकें.क्या इनकी कोई उपयोगिता नहीं.बहुत सोचने के बाद लगा नहीं उपयोगिता तो है.शाब्दिक रूप तो कुछ नहीं किन्तु सांस्कृतिक रूप में बहुत कुछ है इन गानों में..ये गाने इतना तो जरूर कहते हैं कि कभी गाँव के पीपल के पेड़ पर बगुले रहा करते थे.आज भी गाँव जाता हूँ ..कुछ पीपल के पेड़ बचे भी हैं.लेकिन उनपर कोई बगुला नहीं रहता.पेड़ तो है किन्तु उसकी शोभा न जाने कहाँ चली गई.अब तो बाग़ ही नहीं तो फिर कोयल कहाँ होगी.आर्थिक विकास के इस दौर में वातावरण का विकास पिछड़ता जा रहा है.हम अपने में इतने मशगूल हो गए हैं कि इन पशु पक्षियों की तनिक भी चिंता हमें नहीं रही.हमें चिड़ियों का चहचहाना ,उनका कलरव शोर लगने लगा है.उनकी घरेलू उपस्थिति हमें गन्दगी का एहसास दिलाती है.

वो दिन दूर नहीं जब बगुला,गौरैया,कोयल इत्यादि तीतर की तरह प्रतिबंधित श्रेणी में आ जायेंगे.इसलिए हमें जागना होगा.इन पक्षियों फिर से स्नेहपूर्ण पनाह देनी होगी.फिर से बाग़ लगाने होंगे जिससे प्राकृतिक असंतुलन ज्यादा न हो.शुक्रिया शारदा सिन्हा जी के इस ऐतिहासिक धरोहर गानों का जिससे हम अपने बीते हुए समाज को जान पाते हैं.अपने वातावरण के बारे में थोडा सोच लेते हैं.आप भी सोचियेगा....

शनिवार, अप्रैल 03, 2010

बिहार उत्सव 2010

एक दिन पेपर में पढ़ा, प्रगति मैदान में बिहार उत्सव का आयोजन बिहार सरकार ने किया है.कल गुड फ्राइडे की छुट्टी थी.सोचा थोडा घूम लिया जाय.बिहारी हूँ ..थोडा प्यार तो है बिहार से.थोडा प्यार इसलिए कह रहा हूँ..क्यूंकि ज्यादा प्यार पनप नहीं पाया.थोड़ी चिढ इसलिए हो गयी ..वहां का अतिभ्रस्ट प्रशासन देखकर.बिना पैसा दिए एक भी काम सरकारी टेबल पर से नहीं खिसकता.ऐसा नहीं है की दिल्ली का मुरीद हूँ.यहाँ भी कमोबेश वही हालत हैं.लोगों के पास पैसा है इसलिए लोगों को घूस देने से यहाँ परहेज नहीं.यहाँ लोगों ने आत्मसात कर लिया है "घूस संस्कृति" को.ऐसा नहीं होता तो तो ३ साल के बच्चे के एडमिशन के लिए 20 हजार से 2 लाख रुपये तक स्कूलों में घूस नहीं दिए जाते.यहाँ के शरीफ कहे जाने वाले लोग 2 लाख रुपये देकर शान से अपना गुणगान करते रहते हैं.पेपर,टीवी में मीडिया वाले बहुत कुछ कहते हैं.कोई फायदा 6 साल से मैंने तो नहीं देखा.यहाँ भी ट्रैफिक पुलिस 100-50 रुपये में अपना काम चला लेती है.चलो जी ये तो रही अपने मन की भड़ास.आगे "बिहार उत्सव की बात करते हैं"


शाम को 6 बजे प्रगति मैदान पहुंचा.गेट नंबर दस पर सिक्यूरिटी वाले ने ,जो की बोली से बिहारी लग रहा था,बड़ी शान से हमें रास्ता बताया.अति सभ्य लहजे में.आम तौर पर ऐसा देखने को नहीं मिलता.खैर शायद बिहारी बिहारी का प्यार रहा हो.

बिहार उत्सव पहुंचा.अन्दर पहुंचकर बिहार के अतीत को चित्र प्रदर्शनी के माध्यम से देखकर मन अभिभूत हो गया. बिहार हैंडलूम के बहुत से स्टाल थे.बांस के बने शो पीसेस बड़े अछे लगे .मैंने भी दो सस्ती चीजें खरीदी.बांस के बने गाँधी जी की मूर्ती काबिले तारीफ़ थी.लेकिन 2000 की होने के वजह से मैंने नहीं खरीदा.अपने जिला भभुआ का हाथी स्टाल भी एक बार देखने के लिए अच्छा था.

साथ ही अपनी प्रतिक्रिया भी बोर्ड पर लिखने की व्यवस्था लाजवाब लगी.कुल मिलकर बिहार के ब्रांडिंग का यह अच्छा प्रयास लगा.हाँ अभी और बहुत कुछ करना बाकी है.ऐसा तो लगा ही.नितीश कुमार को धन्यवाद.

बाहर बिहार का मशहूर लिट्टी चोखा का स्टाल भी अच्छा लगा.हमने भी लिट्टी चोखा खाया.

शाम के करीब सात बजे संगीत का कार्यक्रम भी खूब रहा."जय जय भैरवी असुर नसावनि" विद्यापति के इस भक्ति गीत से शुरू इस कार्यक्रम में कई लोकगीत प्रस्तुत किये गए जो मनमोहक और मंत्रमुग्ध कर देने वाले थे.कलाकारों का गीतों पर अभिनय भी आनंदित करने वाला था.आनंद इतना था की मेरे 20 महीने के बच्चे ने भी ताली बजायी जो की भोजपुरी यहाँ सुन भी नहीं पाता.

7 :15 बज चुके थे.मुझे गुडगाँव आना था.चल पड़ा.9 बजे घर पहुंचा.मन में जय जय भैरवी असुर नसावनि की धुन बज रही थी.