गुरुवार, जून 03, 2010

दुबई वाले भाई..

पूर्ण गुलामी के प्रतीक इस सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री का मैं भी एक गुलाम हूँ.आइये गुलामी का एक बानगी पेश करता हूँ.साथ में एक दुबई वाले भाई की एक कहानी भी होगी.अभी कुछ दिन पहले क्लाइंट विजिट थी.client visit का मतलब जी बड़े आका आ रहे हैं.अब सब कुछ अच्छा दिखना चाहिए.बड़े आका में भी फिरंगी साहब हों तो क्या कहने.फिर तो उस दिन सब कुछ चमचमाती मिलेगी.डेस्क,चेयर से लेकर गुलामों के कपडे तक.खैर हमसे भी कहा गया कि फलाँ फलाँ के कपडे पहन कर आना है.कपड़ों पर जितनी मेलबाजी हुई उतनी अपने प्रोजेक्ट पर कभी नहीं हुई.

पूरी टीम का ड्रेस कोड एक ही होना चाहिए.खैर मैं भी पहुंचा.मीटिंग 3 बजे होनी थी.वैसे तो फिरंगी साहबों को लेट लतीफ़ की आदत नहीं होती किन्तु उस दिन मीटिंग शुरू हुई 4 :30 बजे.मेरी ट्रेन थी बनारस के लिए 6 :45 बजे शाम को.गुडगाँव से नई दिल्ली जाने में डेढ़ दो घंटे तो लगते ही हैं.मैंने अपने आका से कहा कि सर छोड़ दीजिये मेरी ट्रेन छूट जाएगी.गुलामों के सरताज ने कहा भाई उसके साथ तुम्हारी डाईरेक्टर भी आ रही है.केवल तुम्हे पहचानती है तुम नहीं रहोगे तो कैसा लगेगा.क्या होना था. आज्ञा सर माथे पर.मीटिंग शुरू हुई और ख़तम हुई 6 बजे.ट्रेन छूट गई.घर जाना जरूरी था.दूसरी ट्रेन की तलाश की.अगले दिन मिली.काशी विश्वनाथ एक्सप्रेस .मंथर गति से चलने वाली इस ट्रेन में दाखिल हो गया.बहुत कोसा अपने आप को.कहाँ गुलामी ख़तम हुई है.पहले अंग्रेजों के गुलाम थे अब अमेरिकन के.रोटी के निवाले तो उन्ही से मिलते हैं.चलो जी ये तो रही मन की भड़ास..आगे दुबई वाले भाई की कहानी..

मेरी सीट के सामने एक दुबई वाले भाई भी थे.मेरा मतलब है दुबई से आ रहे थे.ढेर सारा एयर लग्गेज देखकर मैं समझ गया.बातों से पता चला कि AC कोच में पहली बार बैठे हैं.AC का सुकून ये नहीं था कि गरमी नहीं है.बोले किराया 900 लिया है.3 - 4 सौ की बेडशीट तकिया तो होगी ही.कुल मिलाकर 4 -5 सौ किराया हुआ..कुछ खास बुरा नहीं है.दुबई में मजदूरी करते हैं.पूर्ण निरक्षर हैं.साथ में एक पढ़ने लिखने वाला लड़का भी मिल गया.मुझसे बात होने लगी.बस मुझे मौका मिल गया - ज्ञान बघारने का.खूब ज्ञान दी.शिव खेडा के दादाजी की तरह बहुत सकारात्मक सोच उस बच्चे में ठूंसने की कोशिश की.वैसे मेरा उद्देश्य बात वात करके कुछ समय काटने का था.

हमारी बातें उस दुबई वाले भाई को अच्छी नहीं लगी.बाकी सब तो ठीक लेकिन पढाई से उन्हें सख्त नफरत थी.पढाई करके लड़के लड़कियां बर्बाद हो जाते हैं.बोले मेरे भी दो बेटे दो बेटियां हैं.बेटों की शादी हो गयी है.फिर वही गाँव की दर्द भरी दास्तान.बच्चे मेरी नहीं सुनते.बच्चा जब पढता था तब बोला बाबूजी मेरे लिए कैमरा वाला मोबाइल लाना.400 दिरम का मोबाइल लाया था.बड़ा खुश था मैं बच्चे को खुश देखकर.आज दोनों बेटे बम्बई रहते हैं.बेटी की शादी है.दोनों कहते हैं-हमलोग नहीं आयेंगे.छोटा तो यहाँ तक कहता है कि मेरे माँ बाप हैं ही नहीं.फिर बहन कहाँ से हो गई.कहते कहते आँखें भाई आयीं उस दुबई वाले भाई की.चेहरे पर बेबसी और लाचारी साफ़ नज़र आ रही थी.अपार गर्मी में दिनभर काम करता हूँ दुबई में. भदोही में करोड़ों की जमीन खरीदी किसके लिए...कहते हैं माँ बाप मर गए..फिर झर झर आंसू.....सारे लोग सुनते रहे.उस पढने वाले लड़के ने ढाढस बंधाई.चलिए सब अच्छा होगा.अब क्या अच्छा होगा.पिता जनम देता है इस दिन के लिए.अपना पेट काट कर ..मजदूरी करके पढाया..और ये दिन.. फिर आंसू....

खैर गाँव के मजदूर परिवार की एक और कहानी...जो कि कुछ ख़ास नहीं लगी.बल्कि एक आम कहानी लगी.क्यूँकि भाई निरक्षर था इसलिए उसके दिमाग में गणित नहीं थी.दुःख सीधे सीधे बाहर आ रहा था.हम पढ़े लिखे हैं गणितबाज़ हैं.दुःख को जोड़ने घटाने की कला है हमारे पास.अनेक समस्याएँ चुपचाप सहने की आदत है..

इस सबके बीच.."अपनी डफली" को "अपना राग" मिल गया जो आपके समक्ष प्रस्तुत है.

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