बुधवार, अप्रैल 28, 2010

कष्ट कन्जर्वेसन ला

हमारे एक मित्र है - पंकज कुमार झा.हमारी मित्र मंडली उन्हें प्यार से झा जी ,झा, झाऊ, इत्यादि बुलाती है.एक दिन झाजी से गुडगाँव के गरमी की बात होने लगी.झा जी बोले यार बड़ी गरमी है .घर से ऑफिस जाता हूँ या घर लंच के लिए आता हूँ ..बड़ी कष्ट होता है ..मैंने कहा - कार ले लीजिये ..और कष्ट को ख़तम कर लीजिये .
इतने में झाजी जो की खट्टर काका से कम नहीं हैं -एक नए नियम का प्रतिपादन कर दिया .कष्ट कन्जर्वेसन ला .एनर्जी कांजर्वेसन ला से कुछ मिलता जुलता .कभी पढ़े थे -ऊर्जा कभी नष्ट नहीं होती केवल उसका रूपांतरण होता है .उसी तरह जीव का कष्ट कभी ख़तम न होने वाली बीमारी है .कष्ट का नाश नहीं हो सकता केवल रूप बदल जाता है .मैंने कहा -  वो कैसे झा जी ..बोले देखो ..अभी मैंने AC लगवाई .आराम तो मिल गया किन्तु महीने के बाद भारी बिजली के बिल का कष्ट अभी से है .कार ले लूँगा उसके बाद उसको रखने का कष्ट ..उसकी EMI का कष्ट .चोरी होने का डर .मतलब साफ है .कष्ट ने रूप बदल लिया .रहा उतना ही या कुछ ज्यादा हो गया .
मैंने कहा धन्य है झा जी .आपने एक नया नियम समझाया .मेरी आखें खुल गयीं .

रविवार, अप्रैल 25, 2010

अपनी डफली अपना राग: उजर बगुल बिना पीपरो न सोभे...

अपनी डफली अपना राग: उजर बगुल बिना पीपरो न सोभे...

उजर बगुल बिना पीपरो न सोभे...

बरसों बाद शारदा सिन्हा के कुछ गाने सुने ..उजर बगुल बिना पीपरो न सोभे कोयल बिना बगिया न सोभे राजा...पटना से बैद बोलाईद हो नजरा गईलीं गुइंयाँ..और भी दो तीन... फिर सदा की तरह सोचने लगा..क्या इन गानों की कोई सार्थकता आज भी बची है?अब गाँव की गोरी भी मोडर्न हो गई है.कुछ हो न हो मोबाइल जरूर रहता है.फिर सास ससुर के साथ रहने की परंपरा धीरे धीरे ख़तम हो रही है.फिर इन विरह के गानों का औचित्य.ऊपर से भोजपुरी ...जिसके गानों का सत्यानाश करने में कुछ लोगों कसर नहीं छोड़ी है..अत्यंत फूहड़ किस्म..


फिर क्या हम इन धरोहर गानों को भुला दें और आज के धक् धक् संगीत पर थिरकें.क्या इनकी कोई उपयोगिता नहीं.बहुत सोचने के बाद लगा नहीं उपयोगिता तो है.शाब्दिक रूप तो कुछ नहीं किन्तु सांस्कृतिक रूप में बहुत कुछ है इन गानों में..ये गाने इतना तो जरूर कहते हैं कि कभी गाँव के पीपल के पेड़ पर बगुले रहा करते थे.आज भी गाँव जाता हूँ ..कुछ पीपल के पेड़ बचे भी हैं.लेकिन उनपर कोई बगुला नहीं रहता.पेड़ तो है किन्तु उसकी शोभा न जाने कहाँ चली गई.अब तो बाग़ ही नहीं तो फिर कोयल कहाँ होगी.आर्थिक विकास के इस दौर में वातावरण का विकास पिछड़ता जा रहा है.हम अपने में इतने मशगूल हो गए हैं कि इन पशु पक्षियों की तनिक भी चिंता हमें नहीं रही.हमें चिड़ियों का चहचहाना ,उनका कलरव शोर लगने लगा है.उनकी घरेलू उपस्थिति हमें गन्दगी का एहसास दिलाती है.

वो दिन दूर नहीं जब बगुला,गौरैया,कोयल इत्यादि तीतर की तरह प्रतिबंधित श्रेणी में आ जायेंगे.इसलिए हमें जागना होगा.इन पक्षियों फिर से स्नेहपूर्ण पनाह देनी होगी.फिर से बाग़ लगाने होंगे जिससे प्राकृतिक असंतुलन ज्यादा न हो.शुक्रिया शारदा सिन्हा जी के इस ऐतिहासिक धरोहर गानों का जिससे हम अपने बीते हुए समाज को जान पाते हैं.अपने वातावरण के बारे में थोडा सोच लेते हैं.आप भी सोचियेगा....

शनिवार, अप्रैल 03, 2010

बिहार उत्सव 2010

एक दिन पेपर में पढ़ा, प्रगति मैदान में बिहार उत्सव का आयोजन बिहार सरकार ने किया है.कल गुड फ्राइडे की छुट्टी थी.सोचा थोडा घूम लिया जाय.बिहारी हूँ ..थोडा प्यार तो है बिहार से.थोडा प्यार इसलिए कह रहा हूँ..क्यूंकि ज्यादा प्यार पनप नहीं पाया.थोड़ी चिढ इसलिए हो गयी ..वहां का अतिभ्रस्ट प्रशासन देखकर.बिना पैसा दिए एक भी काम सरकारी टेबल पर से नहीं खिसकता.ऐसा नहीं है की दिल्ली का मुरीद हूँ.यहाँ भी कमोबेश वही हालत हैं.लोगों के पास पैसा है इसलिए लोगों को घूस देने से यहाँ परहेज नहीं.यहाँ लोगों ने आत्मसात कर लिया है "घूस संस्कृति" को.ऐसा नहीं होता तो तो ३ साल के बच्चे के एडमिशन के लिए 20 हजार से 2 लाख रुपये तक स्कूलों में घूस नहीं दिए जाते.यहाँ के शरीफ कहे जाने वाले लोग 2 लाख रुपये देकर शान से अपना गुणगान करते रहते हैं.पेपर,टीवी में मीडिया वाले बहुत कुछ कहते हैं.कोई फायदा 6 साल से मैंने तो नहीं देखा.यहाँ भी ट्रैफिक पुलिस 100-50 रुपये में अपना काम चला लेती है.चलो जी ये तो रही अपने मन की भड़ास.आगे "बिहार उत्सव की बात करते हैं"


शाम को 6 बजे प्रगति मैदान पहुंचा.गेट नंबर दस पर सिक्यूरिटी वाले ने ,जो की बोली से बिहारी लग रहा था,बड़ी शान से हमें रास्ता बताया.अति सभ्य लहजे में.आम तौर पर ऐसा देखने को नहीं मिलता.खैर शायद बिहारी बिहारी का प्यार रहा हो.

बिहार उत्सव पहुंचा.अन्दर पहुंचकर बिहार के अतीत को चित्र प्रदर्शनी के माध्यम से देखकर मन अभिभूत हो गया. बिहार हैंडलूम के बहुत से स्टाल थे.बांस के बने शो पीसेस बड़े अछे लगे .मैंने भी दो सस्ती चीजें खरीदी.बांस के बने गाँधी जी की मूर्ती काबिले तारीफ़ थी.लेकिन 2000 की होने के वजह से मैंने नहीं खरीदा.अपने जिला भभुआ का हाथी स्टाल भी एक बार देखने के लिए अच्छा था.

साथ ही अपनी प्रतिक्रिया भी बोर्ड पर लिखने की व्यवस्था लाजवाब लगी.कुल मिलकर बिहार के ब्रांडिंग का यह अच्छा प्रयास लगा.हाँ अभी और बहुत कुछ करना बाकी है.ऐसा तो लगा ही.नितीश कुमार को धन्यवाद.

बाहर बिहार का मशहूर लिट्टी चोखा का स्टाल भी अच्छा लगा.हमने भी लिट्टी चोखा खाया.

शाम के करीब सात बजे संगीत का कार्यक्रम भी खूब रहा."जय जय भैरवी असुर नसावनि" विद्यापति के इस भक्ति गीत से शुरू इस कार्यक्रम में कई लोकगीत प्रस्तुत किये गए जो मनमोहक और मंत्रमुग्ध कर देने वाले थे.कलाकारों का गीतों पर अभिनय भी आनंदित करने वाला था.आनंद इतना था की मेरे 20 महीने के बच्चे ने भी ताली बजायी जो की भोजपुरी यहाँ सुन भी नहीं पाता.

7 :15 बज चुके थे.मुझे गुडगाँव आना था.चल पड़ा.9 बजे घर पहुंचा.मन में जय जय भैरवी असुर नसावनि की धुन बज रही थी.