गुरुवार, दिसंबर 27, 2018

गढ़ मुक्तेश्वर के मेले में

कई बार ऐसा महसूस होता है कि मैं एक अतीतजीवी व्यक्तिहूँ.इसलिए कुछ लिखता हूँ तो गाहे बगाहे अतीत आ ही जाता है.मेरे गाँव के पास ही एक गाँव है - करजांव.वहां प्रति वर्ष एक मेला लगता है.मेला कितना पुराना है ये तो नहीं पता लेकिन जब मैं 6-7 साल का था तब गया था.उस समय मेला का समुचित परिभाषा हमारी पाठ्य पुस्तक का वो पन्ना था जिसने राम, श्याम, कमल और सलमा मेला देखने जाते हैं, जलेबियाँ खाते हैं, बांसुरी और गुड़िया खरीदते हैं और नाचतेकूदते अपने रहीम चाचा के साथ शाम तक वापस घर आजाते हैं.
बाबूजी शहर रहते थे.गाँव में मेरी मां, आजी(दादी) और बाबा(दादा) रहते थे.आजी से मैंने आग्रह किया मुझे भी मेला देखने जाना है.आजी ने कहा-कहाँ इतना दूर जायेगा, मेले में"भुला" जायेगा."नहीं-मुझे जाना है".फिर बाल हठ के सामने उन्होंने घुटने टेक दिए. अब समस्या ये थी कि मैं जाऊं किसके साथ.

हमारी एक पड़ोसन थीं.बाल बिधवा थीं.घर में कोई नहीं था.अपने जीविकोपार्जन के लिए साज सिंगार के सामान की टोकरी सर पर लेकर गाँव गाँव चक्कर लगाते हुए बेचती थीं.पडोसी गाँव जब मेला लगता था तब 2-3 दिन के लिए उनकी दुकान उनके माथे से मेले की ज़मीन पर उतरती थी.उनका नाम तो कुछ और था लेकिन सम्पूर्ण गाँव उन्हें बुढ़ापे तक "कनिया"(कन्या का अपभ्रंस) ही कहता था.हमारे लिए वो कनिया आजी थीं.तो तय ये हुआ कि मैं कनिया आजी के साथ ही मेला देखने जाऊंगा.आजी(मेरी दादी) ने पैसे के तौर पर एक-आध सेर तीसी(अलसी) कनिया आजी को दे दिए और कहा, संजे को जिलेबी(जलेबी) खिला देना.

इस तरह पहली दफा मैं मेला देखने गया.जलेबी तो खाई ही एक पुस्तक भी खरीदी भोजपुरी गानों की - "बोल बोल ए बबुआ तू का खाइब".तब तक गाने का शौक धीरे धीरे घर कर रहा था. 
गाने की किताब लेकर शाम तक घर आया तो पाया कि मेरी बहन शहर से आईं हैं.मेरे हाथ से किताब लिया और टाइटल पढ़कर ही जोरदार ठहाका.सभी गानों को ज़ोर ज़ोर से पढ़ने लगीं.साथ साथ सभी मानुस खतरनाक और उपहासपूर्ण तरीके से हंसने लगे.उस समय तो पता नहीं था कि क्यों हंस रहे हैं लेकिन इतना समझ गया कि कोई ग़लत किताब खरीद लाया हूँ.मौका मिलते ही किताब के चीथड़े किया और झाड़ियों में फ़ेंक आया.इस तरह दिनभर के मेले का आनंद उड़न छू हो गया.

शहर आया तो पाया कि गाँव का मेला शहर के बाज़ार के आगे कुछ नहीं है.फिर भी शहर के पास अखलासपुर गाँव में मकर संक्रांति के दिन मेले में सालों साल उपस्थिति रही.यह मेला गाँव के मेले से कई गुना बड़ा होता था.उसके बाद मैं कब और कहाँ मेला देखने गया, याद नहीं.

नीरज ने जब ग्रुप में गढ़मुक्तेश्वर के गंगा मेले की चरचा की तब दिमाग़ में मेले की बात बर्षों बाद आयी.लेकिन जाने का प्लान तय नहीं था.कारण था मेरा पी एच डी का कोर्सवर्क एग्जाम.तय कार्यक्रम के अनुसार परीक्षा 20 से शुरू होने वाली थी.लेकिन अभी तक टाइम टेबल नहीं आया था.फिर टाइम टेबल भी आया.मेरा पहला पेपर 24 को था.फिर सोच विचारकर मेला जाने का मन बना लिया.20 को चलेंगे 21 को वापिस आ जायेंगे.22 को ट्रेन पकड़ेंगे ....तो इस तरह प्रोग्राम को अंतिम रूप दे दिया गया.

नीरज मुसाफ़िर ग्रुप के कुछ सदस्य भी तैयार थे ही.

अपने अभिन्न मित्र पंकज झा से बात की तो वो भी तैयार हो गया. लेकिन शौचालय की समस्या को ध्यान में रखते हुए झा जी ने 21 की सुबह का प्लान बनाया.7 बजे तक दिल्ली से चलेंगे, 10 बजे तक मेला पहुंचेंगे और शाम तक दिल्ली वापसी.प्लान बढ़िया था.

गढ़ मुक्तेश्वर उत्तर प्रदेश के हापुड़ ज़िले में गंगा के किनारे बसा एक शहर है.कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर यहाँ गंगा किनारे एक प्रसिद्ध मेला लगता है जहाँ लाखों श्रद्धालू गंगा स्नान और मेला घूमने आते हैं.मेला गंगा के दोनों तरफ लगता है.गढ़ के साइड में गढ़ मेला और गंगा पार तिगरी मेला.दोनों मेलों का आयोजन अलग अलग जिला प्रशासन करता है.
नीरज का प्लान तिगरी वाले साइड जाने का था. तिगरी का ज़िक्र अपने एक सहकर्मी से भी की थी जिसकी उन्होंने बहुत तारीफ भी की. तिगरी इसलिए क्यूंकि यहाँ सम्पूर्ण मेला क्षेत्र रेत पर होता था.टेंट भी रेत पर.मेला भी रेत पर.हालाँकि तिगरी की तरफ गंगा के अत्यधिक कटाव के कारण रेत काफी कम हो गयी थी. बालकों को बताया तो टेंट के नाम पर ही बहुत खुश हो गए.टेंट में सोने को मिलेगा इसी से वो नाच रहे थे.तो इस तरह सोचते विचारते 20 तारीख़ आ गयी और हम चलने को तैयार.

20 तारीख को बालकों का स्कूल था और वो 2:10 बजे फ़ुरसत हुए.
फिर खाते पीते 3 बज गए.हमारी सवारी आगे बढ़ी.नीरज का फ़ोन आया-मैं हापुड़ आ गया.कहाँ हो.मैंने कहा-भाई अभी तो चला हूँ.गूगल मैप देखा.गूगल ने सबसे छोटा रास्ता बताया-AWHO - अल्फा 2-डेल्टा 1-बोड़ाकी-जारचा-सपनावत होते हुए हापुड़ बाईपास,फिर हाइवे से गढ़ मुक्तेश्वर तक.बोड़ाकी से आगे थोड़ा सा रास्ता ख़राब है.बाकी सारा रास्ता बढ़िया है.गाँवों की सड़कें अच्छी हों तो उनपर विचरण करने का अपना ही आनंद है.रस्ते में कहीं एक ट्रैक्टर गन्ना सहित उलट गया था.एक ट्राली में कितना गन्ना होता है ये तो आप सभी जानते हैं.बेचारा ट्रैक्टर.ट्रैक्टर वाला गन्ना समेटने में लगा था, बाकि कुछ दर्शक भी थे.हमने भी एक गन्ना मांग लिया.थोड़ी देर में रास्ता साफ़ हुआ तो आगे बढ़ चले.

एक और विशेष बात-जनाब नीरज ने हमें latitude और longitude भेजा था अपने अड्डे का.बोले यहाँ आ जाओ.बाकी कोई लैंड मार्क नहीं है.गढ़ मुक्तेश्वर गंगा पुल के थोड़े ही आगे बाएं एक रास्ता तिगरी की ओर जाता है.गूगल देव ने घुमाया हम घूम गए.नीरज ने मैसेज किया उस पॉइंटकी तरफ जहाँ तक सड़क जाती है आ जाओ.
6 बजे थे.घुप अँधेरा.चारों तरफ खेत.कच्ची सड़क.एक भी आदमजात नहीं.हम सोच रहे थे कि मेला कहाँ है.मेले का रास्ता और इतना सन्नाटा.ख़ैर गुरु पर भरोसा था.आगे बढे और जहाँ तक लगा सड़क है वहां तक पहुंचे.गाड़ी रोकी और फ़ोन घुमाया(घुमाया अब शायद तर्कसंगत नहीं).बहुत कोशिश के बाद फ़ोन मिला.उत्तर मिला-आता हूँ.वहां से बहुत सारी लाइट्स दिख रही थीं लेकिन दूर. ये समझ आ रहा था कि मेला यहीं है लेकिन रास्ता कहाँ से है.15-20 मिनट के बाद नीरज-नरेंद्र द्वय प्रकट हुए और बोले वापिस मोड़ लो.फिर क्या उसी कच्ची सड़क से वापिस, फिर पक्की सड़क और आखिर में मेला...समय 7 बजे.

कुछ मेले के बारे में फिर से.
मेले के जनसैलाब को देखते हुए प्रशासिक व्यवस्था शानदार थी.कच्ची लेकिन बहुत चौड़ी सड़कें.जगह जगह पुलिसवाले.मेले को 14 सेक्टरों में बांटा गया था और हर सेक्टर में एक पुलिस चौकी.एक कोतवाली.अग्निशमन कार्यालय.स्काउट गाइड के नौजवान .वगैरह वगैरह..तो भाई प्रशासन चाक चौबंद.लाखों के भीड़ को देखते हुए इतनी व्यवस्था ज़रूरी थी.
ग्रामीण अपने अपने ट्रैक्टरों पर तम्बू और 8-10 दिन तक के लिए राशन पानी के साथ मेले में पहुँचते हैं और मेले का आनंद उठाते हैं.हमारी सारी व्यवस्था नरेंद्र भाई ने की थी.17 तारीख़ से दीप्ति जी अपने लाव लश्कर के साथ मेले में जम चुकी थी.

दीप्ति, नरेंद्र, उनकी धर्मपत्नी और उनके बड़े भाई की जितनी तारीफ की जाय कम है.ग़ज़ब का निस्वार्थ सेवा भाव.हम सभी अनजाने.लेकिन एक मिनट के लिए भी नहीं लगा कि हम सभी अनजान हैं.दो तम्बुओं में एक में महिला ब्रिगेड और दूसरे में पुरुषों के सोने की व्यवस्था थी.हमसे पहले शाहजहां पुर के आनंद जी सपरिवार, ग़ज़िआबाद के अजय जी और बीनू कुकरेती जी पहुँच चुके थे.बीनू जी पहाड़ों से होने वाले पलायन के प्रति संवेदनशील हैं और पहाड़ी गाँव फिर से कैसे गुलज़ार हों इस पर सार्थक प्रयत्न कर रहे हैं.इसी कड़ी में वो हर साल अपने गाँव बरसूडी में "बरसूडी महोत्सव" का आयोजन करते हैं जहाँ कई पहाड़ प्रेमी वहां जमा होते हैं.बच्चों के लिए कई तरह के कार्यक्रम किये जाते हैं.मेडिकल कैंप भी लगाया जाता है.नीरज के माध्यम से बीनू जी से भी मुलाकात हुई.मैं सात बजे डेरे पर पहुंचा था.

खाना पीना खाकर हम मेला घूमने गए.मेला अब आधुनिक हो गया है.बड़े बड़े झूले,सर्कस,जादू का खेल, मौत का कुआँ, चाट पकौड़ी की दुकाने, और भी अनगिनत दुकाने..तकनीकी कारणों से सारे झूले बंद थे.बच्चे निराश हुए.और दिन में फिर आएंगे ये तय करके वापस आ गए.नीरज दो टेंट लेकर गए थे.हमने दोनों पर कब्ज़ा कर लिया.रात में टेंट में गुज़ारी. बालकों को बहुत मजा आया.

21-Nov-2018
सुबह सुबह मैं और चूनु बाबू गंगा घाट घूमने गए.अद्भुत नज़ारा.गंगा का निर्मल चलायमान जल अपनी ओर खींच रहा था.लेकि ठण्ड ज़्यादा हावी रही और हम नहीं कूदे.हालाँकि कई वीर नर नारी स्नान लाभ उठा रहे थे.खुले में शौच अब अपनी आदत से जा चुकी है.हमारे जैसों का ख़याल रखते हुए पूरे मेले में हर 100-200 मीटर पर अस्थायी शौचालय बनाये गए थे.उनके इस्तेमाल का चार्ज 10 रूपया था.मैंने भी उसी की सेवा ली.मेरे हिसाब से वो व्यवस्था अच्छी कही जाएगी. लाखों के लिए इतनी व्यवस्था भी मायने रखती है.
मित्रवर झा जी और शालिनी जी दिल्ली से चल चुके थे लेकिन 10 बजे का प्लान करते करते मेले में 12:30 बजे पहुंचे.आते ही तुरंत गंगा स्नान.नदी में पहले भी बनारस में नहा चुका हूँ.लेकिन यहाँ का आनंद अलौकिक था.

नहाने के बाद भोजन
भोजन की चरचा मैं अपने किसी भी ब्लॉग में नहीं करता.भोजन मेरा पसंदीदा टॉपिक नहीं है.लेकिन यहाँ अगर भोजन का ज़िक्र न हो तो उन देवियों का अपमान होगा जिन्होंने हमलोगों के सम्मान को अपना सम्मान बनाया और लजीज़ व्यजनों के स्वाद से अभिभूत कर दिया.मेरे पास उनके इस अथक सेवा-श्रम के लिए साधुवाद के अलावा कोई शब्द नहीं.दीप्ति एंड कंपनी ने लगातार बिना थके हुए हमारे लिए चाय पकोड़े खाने का शानदार इंतज़ाम किया.खिचड़ी और छाछ लाजवाब थे.कम से कम 20 लोगों के लिए रोटी बेलना आसान तो नहीं है.तो एक बार फिर से अंतरतम से धन्यवाद. मेहमाननवाजी का शानदार परिचय दिया दिया नरेंद्र भाई ने और उनके बड़े भाई साहब ने.
खाने के बाद हम मेला घूमने गए.सबकी इच्छा थी गंगा में नौका विहार की.एक मोटर बोट ली गयी और 2 चक्कर लगाए गए.मनमोहक दृश्य कहना काफी होगा. 
नौका विहार के बाद हम मेले में गए.चुन्नू बाबू को बड़े झूले में जाना था.मुझे बहुत डर लगता है.फिर भी गया.मौत का कुआँ भी दिखाया.खाया पिया.सभी ने अपने अपने अंदाज़ से आनंद लिया.ऐसे करते करते 6 बज गए.अब लौटने की बारी थी.नीरज से विदा लेने आये डेरे पर.ये क्या, भोजन तैयार है.न करने का तो सवाल ही नहीं था.खाया गया.और सात बजे वापसी.वापसी में पंकज और शालिनी जी भी थे.इस बार मुख्य सड़क से आये.11 बजे घर पहुंचे.

मेला का अर्थ है जहाँ मेल हो.तो जब भी आपको मिलन के चिर आनंद की अनुभूति करनी हो तो चले आइये - गढ़ मुक्तेश्वर के मेले में... 

कुछ छायाचित्र देखिये..

सुबह की चाय

गुब्बारे ले लो गुब्बारे 
स्वास्थ्य का पूरा ख़याल
शालिनी जी के कुंवर साहब
बाल मंडली को नयी सवारी मिली..
ये टेंट जिसपर हमने कब्ज़ा कर लिया था
सुबह सुबह गंगा दर्शन
अनगिनत टेंटों से झांकता सूरज

बाएं से-राग अलापने वाला भाई, बिनू कुकरेती, अजय जी, आनंद जी, मुसाफ़िर साहब और नरेंद्र भाई
मेले का रंग
 मेले के रंग में चुन्नू बाबू 
सुबह सुबह गंगा स्नान 
सुबह सुबह गंगा स्नान 
नौका विहार की तैयारी
नौका विहार-शालिनी जी, , पंकज



नाव से लिया गया चित्र
अवनि-नरेंदर जी की प्रिंसेस
झूले ही झूले-मुझे इनपर बहुत डर लगता है
झूले के ऊपर से सूर्यास्त
एक झूले से दूसरा झूला
कुछ चित्र नरेंदर जी के कैमरे से       








9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही शानदार वर्णन संजय जी ....

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  2. उत्तर
    1. आपका ब्लॉग देखा। बहुत संजीदगी भरी लाइन्स हैं।लिखा कीजिये।

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  3. बहुत सही बढ़िया तस्वीरे । खाने की जितनी तारीफ और धन्यवाद किया जाये काम है। ऐसी कठिन जगह पे इतना इंतेजाम और घर का खाना । नीरज जी और उनके परिवार वालों का तहे दिल से धन्यवाद।

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  4. लेखन के बीच मे फ़ोटो एकदम सही है जगह का सही विवरण मिल जाता है

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  5. धन्यवाद उत्साहवर्धन के लिए।

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