रविवार, जुलाई 01, 2018

गंगोत्री यात्रा - धराली, गंगनानी, मुखबा और मार्कण्डेय मंदिर

तो हुआ यूँ कि फेसबुक पर नीरज की हर्षिल-गंगोत्री यात्रा का खुलासा हुआ और मेरे मन में भी कुलबुलाहट होने लगी साथ चलने की.रैथल यात्रा को ध्यान में रखकर ये सहज अनुमान था कि यह यात्रा भी लीक से थोड़ी हटकर होगी.हालाँकि यह यात्रा थोड़ी महंगी लग रही थी.थोड़ा हिसाब किताब देखा तो ज़्यादा महंगी नहीं लगी.चलो चलते हैं.श्रीमती जी ने भी हामी भरी.बेटा बेहद खुश.
फिर बात उठी छुट्टियों की.जून में बच्चों की छुट्टिया होती हैं तो गांव जाने का भी प्लान था.गाँव में कम से कम 5  दिन और इस यात्रा के लिए भी 5  दिन. इतनी लम्बी छुट्टी का मिलना लगभग नामुमकिन था.फिर भी हिम्मत करके अपने बॉस से पूछ डाला.
"सर, छुट्टी चाहिए."
"ले लीजिये"
"कुछ ज़्यादा चाहिए"
"कितने दिन की"
"कम से कम 10 वर्किंग डेज की"
"क्यों कुछ काम है क्या"
"नहीं, बहुत दिन हो गए घर जाना है"
"क्लाइंट से एक बार डिसकस कर लीजिये और ले लीजिए "
फिर क्या था.औपचारिक बातचित हुयी और छुट्टी मिल गयी. 5 दिन गाँव घूमकर दिल्ली आ गया. 
अरे हाँ एक बात बताना तो भूल ही गया.गाँव में एक्टिवा स्कूटी से गिर गया था. घुटना छिल गया.दर्द भी था.अब लग रहा था कि गंगोत्री प्लान कैंसिल हो जायेगा.लेकिन बीवी बच्चों की इच्छा का सम्मान करते हुए, जो होगा देखा जायेगा, ऐसा सोचकर आगे बढ़ने का निर्णय लिया.

मैंने दिल्ली से उत्तरकाशी बस की बुकिंग ऑनलाइन कराई थी.तीन सीट.सोचा बेटी को भी एडजस्ट कर लेंगे.हालाँकि यह फैसला बेहद तकलीफदेह रहा.22 जून की 9 बजे  रात को बस छूटने का टाइम था.जब बस में बैठा तो अपने तीन सीट के फैसले पर बेहद अफ़सोस हुआ.तंग सीटें.बच्चों सहित हम चार.सोचा अभी एक और सीट ले लेता हूँ.लेकिन पूरी बस पहले से ही बुक.कोई सीट नहीं.फिर क्या.गरमी से बेहाल, तर तर पसीना टपकाते हुए यात्रा शुरू हुयी.बस का टाइम 9  बजे था लेकिन कुछ सवारियां नहीं आयी थी जिनका इंतज़ार कंडक्टर ने किया.9 :20 पर बस चली.3 :30  पर ऋषिकेश. और 9 :30 सुबह उत्तरकाशी पहुंचे.

इस दौरान उल्टी(कम, उबकाई ज़्यादा) के मारे मेरी और बेटी की हालत  एकदम ख़राब हो गयी थी.बेटी बार बार कह रही थी कि अब मुझे पहाड़ों में नहीं आना. ख़ैर बेहद कष्टकारी यात्रा समाप्त हुयी..उत्तरकाशी में खाना खाया.कुछ ज़रूरी दवाइयां लीं.जैसे दर्द की, उल्टी की, पेट ख़राब, बुखार इत्यादि की.अब थोड़े आराम की ज़रुरत थी. बस अड्डे के पास में ही काशी विश्वनाथ मंदिर है.वहीँ जाकर थोड़ा आराम किया.पूछताछ से पता चला कि उत्तरकाशी से गंगोत्री तक टाटा सूमो चलती हैं.3 घंटे में गंगोत्री की 100 किलोमीटर की दूरी तय कर लेतीं हैं.हम भी टैक्सी स्टैंड पहुंचे चार सीट बुक की.किराया 150 रुपये प्रति सीट धराली तक के.धराली से 24 किलोमीटर आगे गगोत्री है.हमारा होटल धराली में ही बुक था. 

सूमो चली 12 :30  बजे और धराली पहुंची 3 :30  पर.पूरे ३ घंटे. बीचमे 15 मिनट रुका भी था. होटल पहुंचकर हमने चाय पी पकौड़े खाये.अभी तक केवल हमारे एक मित्र अमित राणा(रूद्र हनुमान) जी ही पहुंचे थे.धराली में ठण्ड थी.हम लोग रज़ाई में घुसे और आराम फ़रमाने लगे.8 बजे मुसाफ़िर साहब भी आये.2 अन्य मित्र अजय वर्मा जी और उमेश जी भी आ चुके थे.रात में ९ बजे के क़रीब डिनर संपन्न हुआ और सो गए. अगली सुबह 6 बजे नींद खुली.एकदम तरोताज़ा.मिजाज़ दुरुस्त.कमरे की खिड़की के बहार का नज़ारा मनमोहक था. आगे की कहानी चित्रों की ज़बानी ...

कमरे की खिड़की के बहार का नज़ारा

फिर नहा धोकर तैयार धोकर 9  बजे बाहर निकले.
होटल के सामने का दृश्य. सामने मुखबा गांव दिख रहा है.और मुखबा का गंगोत्री मंदिर भी. गंगोत्री कपाट बंद होने पर गंगोत्री मंदिर की मूर्ति मुखबा गाँव के इसी मंदिर में लाई जाती है.मुखबा और धराली के बीच में भागीरथी नदी बहती है.


चुन्नू भाई धराली में

मैं और मेरी परछाई

हमारी सराय - होटल हिल स्टार धराली

यहाँ से हम चले गंगनानी की ओर. रास्ते में सुखी टॉप पर ठहरे. कुछ तस्वीरें ..

चुन्नू बाबू मम्मी के साथ


बिटिया रानी और भैया

सुखी टॉप से भागीरथी

कुछ लेना न देना मगन रहना, जहाँ रुकें वहीं मौज

शानदार नज़ारा

सूरज देवता

अजय जी हमारे ग्रुप के सबसे बलिष्ठ सदस्य (मजाक में नहीं हक़ीक़त में). आगे इसकी चर्चा होगी.


राग अलापने वाले भाई के पेट पर नज़र ज़रूर लगाएं.इसे कम करने की ज़रुरत है. 


उमेश जी - बस खो गए हैं यहाँ आकर

रस्ते में कहीं भी

रस्ते में कहीं भी
कुछ फोटो वोटो खींचकर सुखी टॉप से हम चल पड़े गंगनानी की ओर.धराली से गंगनानी लगभग ३० किलोमीटर दूर है उत्तरकाशी वाली रोड पर ही.वहां एक गरम कुंड है.नीरज की योजना थी वहां सबको नहलाने की.मैंने तो पहले ही मना कर दिया था.फिर भी गरम कुंड पहुंचे.चुन्नू बाबू बोले मैं भी नहीं नहाऊंगा.मैंने बहुत कहा फिर भी-ना.मैंने ऑफर किया अगर मैं नहाऊंगा तो-फिर मैं भी नहाऊंगा.फिर क्या ना चाहते हुए भी गीली चढ्ढी पहनी(लेकर गया था इमर्जेन्सी में नहाना पड़ा तो...).और दौड़ते हुए कुंड में कूदने वाला था तब तक सभी चिल्ला उठे-रुकिए...रुका.पाँव डाला पानी में.लगा जैसे फफोड़े पड़ जायेंगे.अत्यंत गरम..फिर से एक बार-नहीं नहाऊंगा.जनता बोली-कुछ देर पाँव डालकर रखिये.पाँव डाला..तुरंत निकला..फिर पाँव पानी में..थोड़ी देर बर्दास्त किया.ऐसे ही करते धरते कमर तक उतरा फिर ऊपर झटके में..फिर डुबक..पानी के अंदर..दुइ तीन डुबकी लगाई और बाहर.स्नान पूरा.चुन्नू बाबू भी कमर तक उतरे लेकिन भाग खड़े हुए.सू सू जल गयी अब नहीं जाऊंगा..सभी ने नहाया.श्रीमती और बिटिया ने गर्दन तक.उमेश जी और चुन्नू बाबू कमर तक..अजय नीरज और मैंने डुबकी लगाई..अजय साहब को तो लगा जैसे कुछ हुआ ही नहीं.बिंदास कुंड में कूदे और नहाये..वीर पुरुष..गरम पानी में नहाकर सर चकरा गया.कुछ देर बैठे तब जाकर ठीक हुआ.
ज्ञान की बात-पहाड़ों में जगह जगह गरम पानी के झरने पाए जाते हैं.दरअसल इन इलाकों में कई तरह के पदार्थ ऐसे पाए जाते हैं जो किसी और तत्व से या पानी से रिएक्शन करके भारी ऊष्मा पैदा करते हैं.और पानी गरम हो जाता है.कई बार इसमें गंधक भी होता है और कई बार चूना पत्थर के कारन हीट पैदा होती है.

मैं यहाँ एक भी फोटो नहीं लिया.इसलिए नहीं लगा रहा हूँ.मित्रगण अगर दे देते हैं तो बाद में ब्लॉग अपडेट कर दूंगा.
उसके बाद हम वापिस हो लिए धराली की ओर.प्लान था हरसिल , बगोरी फिर मुखबा जाने का.गंगनानी से निकलते ही एक झरना मिला.फिर क्या सभी रुके मस्ती किये,बाकि फोटू देखिये.

मेरी प्रिय टैग लाइन-यह जीवन क्या है निर्झर है-मस्ती ही इसका पानी है.


कब फूटा गिरि के अंतर से? किस अंचल से उतरा नीचे?
किस घाटी से बह कर आया समतल में अपने को खींचे?
निर्झर में गति है, जीवन है, वह आगे बढ़ता जाता है!
धुन एक सिर्फ़ है चलने की, अपनी मस्ती में गाता है।
बाधा के रोड़ों से लड़ता, वन के पेड़ों से टकराता,
बढ़ता चट्टानों पर चढ़ता, चलता यौवन से मदमाता। 
चलना है, केवल चलना है ! जीवन चलता ही रहता है !
रुक जाना है मर जाना ही, निर्झर यह झड़ कर कहता है !  
रूद्र हनुमान जी के सौजन्य से

झरने में मौज मस्ती के बाद आगे बढे.थोड़ी ही दूरी पर एक और झरना दिखा.यह बिलकुल रोड पर ही था.दरअसल इसे लोगों ने बनाया था.ऊपर से पानी के सोतों को एक दिशा देकर झरना बना दिया गया था.यहाँ लोग नहाते भी दिखे और गाडी धोते भी.हमलोग इस झरना स्रोत के पास गए और कुछ फोटोज लिए.


यही झरना स्रोत है.पहाड़ों से पानी गिरता है और फिर इसे एक जगह सड़क पर गिरा दिया गया है.




 
बेटी ने हाथ कुछ घास ले रखी थी 

और पानी में डालकर आनंदित हो रही थी.
सभी मौज कर रहे हैं

हम सामने वाली सड़क से आये और पुल पार कर गए.यह फोटो झरने के ऊपर से लिया गया है.
कुछ और आगे बढे

यहाँ से प्लान था हरसिल भ्रमण का.लेकिन हमारे ड्राइवर ने कहा कि पहले मुखबा चलते हैं.लौटते में हरसिल देखते हैं.हरसिल बाजार पार करते ही दायीं तरफ एक सड़क मुखबा गाँव जाती है और बायीं ओर बगोरी.हम दायीं ओर मुड़ गए.और एक पतली किन्तु अच्छी सड़क पर आगे बढे.सड़क एक आर्मी एरिया से गुजरती है.ड्राइवर ने बताया कभी कभी आर्मी गाड़ियों को रोक देती है.खैर हमें कोई दिक्कत नहीं हुयी.हम मुखबा पहुंचे.जहाँ सड़क पर गाडी खड़ी हुयी वहां सेब और अखरोट के पेड़ थे.
अखरोट का पेड़
मुखबा गाँव से लिया गया चित्र


मुखबा गाँव के कुलदेवता का मंदिर
पहचान कौन?सामने धराली गाँव.हमारा होटल भी सामने है.


मुखबा से भागीरथी और धराली


इस पौधे का नाम मैं भूल गया. मुखबा गाँव एक बुज़ुर्ग महिला के घर में दिखा.

अजय जी कुछ नाम बता रहे थे.इस पौधे के बीज भी बुज़ुर्ग ने उपहार में दिए.उन महिला से अजय जी का काफी लगाव देखा गया.
अजय जी-अम्मा इसे खाने से नशा होता है क्या?
अम्मा-तू मत खाना तू मर जायेगा. मेरे लिए क्या लाया.
अजय जी-अगली बार लाऊंगा अम्मा.
अम्मा-तेरी घरवाली किधर है?
अजय जी-हैं,घर पे.
अम्मा-हैंगर पे.तू अपने घरवाली को हैंगर पर रखता है!!!
अजय जी-अरे नहीं अम्मा मैंने कहा - हैं,घर पे.
इस तरह सभी हंसी ठिठोली करते रहे.
साथ में वही पता चला कि सर्दियों में गाँव में एक  चौकीदार रहता है.ज़्यादातर लोग उत्तरकाशी चले जाते हैं.बहुत बर्फ रहती है.
ये हैं वो अम्मा जिनसे ढेर सारी गुफ्तगू हुई-फोटो-रूद्र हनुमान  
और यह है वो गंगोत्री मंदिर जिसके लिए मूलतः हम यहाँ आये थे.गंगोत्री कपाट बंद होने पर वहीँ मूर्ती यहाँ लाई जाती है और पूरी सरदी पूजा यहाँ होती है.

गंगोत्री मंदिर मुखबा, कुलदेवता मुखबा, और एक नया मंदिर नरसिंह मंदिर बन रहा है.
मंदिर बनाने वाले कारीगर बिहार से थे.मैंने पूछा कहाँ से हैं-बेतिया से.कौन सी बोली है वहां की-भोजपुरी.फिर क्या थोड़ा हालचाल स्वाभाविक था.कैसे यहाँ पहुंचे.यहाँ काम कैसे मिला?वगैरह वगैरह..

मुखबा में लगभग चार बजने वाले थे और बच्चों ने भूख लगने का अलार्म बजाया.सबको भूख लगी थी.सभी 9  बजे नाश्ता करके चले थे.तय ये हुआ कि हर्षिल में खाना खाएंगे और बगोरी - हर्षिल घूमेंगे.लेकिन हर्षिल में एक दुकान खुली मिली वो भी सिर्फ मोमोस थे उसके पास.मेरी इच्छा मोमोस खाने की नहीं थी.ड्राइवर से कहा गया भाई धराली चल.वहीँ खाना खाएंगे.
यहाँ एक कांड हो गया.ड्राइवर धराली तो आ गया.लेकिन अब वापिस हर्षिल जाने को मना कर दिया.बोला-बार बार एक ही जगह नहीं जाऊंगा.बहुत बहस हुई , अनुनय विनय भी.लेकिन बंदा राज़ी नहीं हुआ.और गाडी घुमाई चला गया.तब जब की बुकिंग 7 बजे तक की थी.खैर सबने खाना खाया.
खाने के बाद नीरज ने कहा मार्कण्डेय मंदिर चलते हैं.मंदिर धराली से भागीरथी पार करके मुखबा गाँव के एक छोर पर भागीरथी के किनारे था.लगभग डेढ़ दो किलोमीटर दूर.ऐसा रमणीक  जगह मैंने आजतक नहीं देखी.
एकबात और.धराली से मुखबा जाने के लिए एक झूला पुल भी है.हमलोग इसी रास्ते से मार्कण्डेय मंदिर गए.
आगे चित्र देखिये.

धराली से मुखबा के लिए झूला पुल
झूला पुल से भागीरथी
पुल के एक छोर पर(मुखबा साइड) एक छोटा मंदिर.- लिखा था -कोटेश्वर का पौराणिक महाकाली मंदिर
काली मंदिर से मार्कण्डेय मंदिर और भागीरथी
काली मंदिर से भागीरथी के किनारे किनारे मार्कण्डेय मंदिर के लिए पगडण्डी.एक पक्का रास्ता ऊपर से भी था.हमने पगडण्डी चुनी.लेकिन यह पगडण्डी बीच में ही ख़तम हो गयी.और हमें जंगल से होकर मुख्य पक्के रस्ते पर चढ़ना पड़ा.यह भी एक छोटी ट्रेकिंग हो गयी.दूर मार्कण्डेय मंदिर दिख रहा है.
एक जंगली फूल.
एक पौधा जिसने इलायची होने का भ्रम पैदा किया.लेकिन इसके बीज की इलायची जैसी गंध बिलकुल नहीं थी.
पगडण्डी से भागीरथी
और ये थी हमारी छोटी ट्रैकिंग पगडण्डी ख़तम होने के बाद.
और ये पहुंचे मार्कण्डेय मंदिर.
मंदिर के पीछे का हिस्सा
मार्कण्डेय मंदिर पीछे से


मार्कण्डेय मंदिर में भागीरथी के किनारे. बिटिया ने फोटो खिचवाने से सख्त मना कर दिया.
इस मंदिर का स्थान अत्यंत आनंदित करने वाला था.अंदर तक सुख देने वाला.भागीरथी, मंदिर को बस हौले हौले छू रही थी.सबने आनंद उठाया.किनारे घाट पर बैठे.बस अद्भुत दृश्य था.मैं लिख नहीं सकता.मेरे पास न ही उतने शब्द है उस क्षण को बयां करने के लिए, न ही वाक्य विन्यास.
मंदिर से सटा हुआ घर था जिसमे  एक 80  साल  (उन्होंने बताया - 4  बीसी मतलब चार बीस ) की बुज़ुर्ग मिलीं प्राथना करते हुए.बहुत बातचीत हुयी.उन्होंने प्रसाद भी दिए.साथ ही ये भी बताया अभी तक गंगा मैया ने मंदिर को नहीं डुबोया.
इस तरह आनंदित होते हुए हम वापिस लौटे होटल. पहले दिन की यात्रा का सुखद समापन हुआ.

14 टिप्‍पणियां:

  1. सूसू जल गई.... हाहाहा...

    बेहद रोचक अंदाज में लिखा है...
    उस ड्राइवर की कहानी फिर से याद दिला दी... लेकिन उसे धन्यवाद देना भी बनता है... अगर वो हमें फिर से हर्षिल ले जाता, तो हम मार्कण्डेय मंदिर नहीं जाते...

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  2. बहुत सुंदर यात्रा वृतांत...

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  3. खूबसूरत वर्णन,मनोहारी चित्र,अगला भाग सात ताल ट्रेकिंग खुल नहीं रहा है।

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  4. बहुत शानदार वर्णन संजय जी...

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