शुक्रवार, मार्च 23, 2012

तबे एकला चलो रे


"कहानी" देखी.बहुत अच्छी लगी.लेकिन कलकत्ता के गलियों में बजता हुआ रबिन्द्र संगीत मंत्रमुग्ध कर गया.वागी तबे एकला चलो रे.
आइये फिर से दुहरायें  ..


यदि तोर डाक शुने केऊ न आसे
तबे एकला चलो रे।
एकला चलो, एकला चलो, एकला चलो रे!
(जब तुम्हारी पुकार कोई न सुने तब एकला यानी अकेले चलो)

यदि केऊ कथा ना कोय, ओरे, ओरे, ओ अभागा,
यदि सबाई थाके मुख फिराय, सबाई करे भय-
तबे परान खुले
ओ, तुई मुख फूटे तोर मनेर कथा एकला बोलो रे!
(ओ अभागे,जब कोई कुछ न बोले,सब मुंह फेर लें,और सभी भयभीत हों,तब अपने अन्दर झांको अपने मुख से अपनी मन की बात बोलो,एकला बोलो रे)

यदि सबाई फिरे जाय, ओरे, ओरे, ओ अभागा,
यदि गहन पथे जाबार काले केऊ फिरे न जाय-
तबे पथेर काँटा
ओ, तुई रक्तमाला चरन तले एकला दलो रे!
(जब सब दूर चलें जाँय,जब कठिन पथरीले राहों पर कोई साथ न दे,तब तुम अपने कंटीले पथ को खुद ही पद-दलित करो,एकला दलो रे.)

यदि आलो ना घरे, ओरे, ओरे, ओ अभागा-
यदि झड़ बादले आधार राते दुयार देय धरे-
तबे वज्रानले
आपुन बुकेर पांजर जालियेनिये एकला जलो रे!
(जब कहीं रोशनी न मिले,रात काली और तूफानी हो,तब अपने ह्रदय की पीड़ा के आवेग में अकेले जलो,एकला जलो रे)

-रबीन्द्र नाथ टैगोर 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें