शुक्रवार, अगस्त 22, 2014

http://www.naisadak.org/खिड़की-पर-कामरान/

POST OF RAVISH KUMAR(NDTV)

दसवीं मंज़िल के कमरे की खिड़की से अपने बेटी को बाहर की दुनिया दिखा रहा था। अचानक एक नौजवान रस्सी से लटका हुआ खिड़की पर आ गया। पानी चाहिए। इतनी ऊंचाई पर बेखौफ वो उन दीवारों को रंग रहा था जिसके रंगीन होने का सुख शायद ही उसे मिले। मेरी बेटी तो रोमांचित हो गई कि कोई दीवार की तरफ से खिड़की पर लटक कर बात कर रहा है। डर नहीं लगता है, ये मेरा पहला सवाल था। दीवार पर रंग का एक कोट चढ़ाकर कहता है-नहीं। डर क्यों। क्या नाम है। कामरान।
फिर कामरान से बात होने लगती है। बिहार के अररिया ज़िले का रहने वाला है। छह महीना पहले दिल्ली कमाने आया है। दो दिनों तक बैठकर देखता रहा कि कोई कैसे खुद को रस्सी से बांध कर लकड़ी की पटरी पर बैठकर इतनी ऊंचाई पर अकेला रंग रहा होता है। तीसरे दिन से कामरान ख़ुद यह काम करने लगता है। मैंने पूछा कि कोई ट्रेनिंग हुई है तुम्हारी। नहीं। बस देखकर सीख लिया। तो किसी ने कुछ बताया नहीं कि क्या क्या सावधानी बरतनी चाहिए। नहीं। तो तुम्हें डर नहीं लगता है नीचे देखने में। नहीं लगता। इससे पहले कितनी मंज़िल की इमारत का रंग रोगन किया है तुमने। सैंतीस मंज़िल। मैं सोचने लगा कि जहां कामरान का बचपन गुज़रा होगा वहां उसने इस ऊंचाई की इमारत कभी देखी न होगी लेकिन दिल्ली आते ही तीसरे दिन से वो ऊंचाई से खेलने लगता है। तो क्यों करते हो यह काम। इसमें मज़दूरी ज़्यादा मिलती है। रिस्क है न। कितनी मिलती है। पांच छह सौ रुपये एक दिन के। पानी दीजिए न। मेरी दिलचस्पी कामरान से बात करने में थी। तीसरी बार उसने पानी मांगा। ओह, भूल गया। अभी लाता हूं। ग्लास लेकर आया तो कामरान नें अपने साथ रंग रहे एक और सज्जन की तरफ ग्लास बढ़ा दिया। जब ग्लास लौटाया तो मैंने कहा कि मुझे लगा कि तुम्हें प्यास लगी है। मुझे तो पता ही नहीं चला कि खिड़की के बाहर कोई और भी लटका हुआ है। नहीं सर। वो हिन्दू है। उसे प्यास लगी है। मेरा रोज़ा चल रहा है।

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