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शनिवार, अक्तूबर 30, 2010

रहमान मियां..

जहाँ तक बस जाती है वहां से मेरा गाँव एक-डेढ़ किलोमीटर दूर है.पैदल जाना पड़ता है.एक बार ऐसे ही पैदल जाते हुए ,गाँव से थोड़ी दूर पर साथ चलते हुए एक चेहरे पर नज़र पड़ी.बूढा शरीर ,बाल सफ़ेद ,काँख में छाता लिए,छोटा कुरता और और घुटने से ऊपर की मैली धोती पहने.पहचानने में देर नहीं लगी-ये थे हमारे ही गाँव के रहमान मियां.

मैंने उन्हें प्रणाम किया-पालागी बाबा .रहमान मियां बोले खुश रहो बेटा ,कौन हो पहचान नहीं पाया,आँखें कमजोर हो गयी हैं.मैंने अपना परिचय दिया-बोले-अरे संजे..का हाल बा बचवा..बाबूजी कैसे हैं..बाल-बच्चे?सब कुशल मंगल?भैया कैसे हैं.घर के सभी सदस्यों का हाल चाल इतनी आत्मीयता से शायद खुद घरवाले भी नहीं पूछते."बेटा..नगीना-मुन्नी भैय्या चले गए,तुमलोग शहर रहने लगे..साथ छूट गया..नहीं तो....."

यही सब कहते सुनते गाँव आ गया और मैंने अपने घर की और रहमान मियां ने अपने घर की गली पकड़ ली.आप सोच रहे होंगे कि मैं ये बेतुकी बात क्यूँ कर रहा हूँ..ऐसा तो होता रहता है.मैं आपको याद दिला दूं कि अभी कुछ दिन पहले भारत में एक ऐतिहासिक न्यायिक फैसला हुआ.जी हाँ ..बाबरी मस्जिद - राम मंदिर का..दूसरे शब्दों में - अयोध्या विवाद .रहमान मियां उसी की एक बानगी हैं.ऐसा नहीं कि कहानी नई है.बस पात्र बदल रहा हूँ.

जब हम छोटे थे ,हमें किसी ने नहीं सिखाया कि ये मियां हैं इसलिए इनसे बात नहीं करनी.इनसे मिलना जुलना मना है.रहमान मियां और मेरे बाबा(दादाजी) पक्के दोस्त थे.हम रहमान मियां को भी बाबा ही बुलाते थे और पैर छूकर प्रणाम करते थे.जब हमारे मामा ने आंटे और तेल की चक्की खोली थी तब रहमान बाबा ने अपना घर दिया था.हर छोटे बड़े काम में दोनों परिवार साथ होते थे.बात सिर्फ दो परिवारों की नहीं..समूची मुस्लिम बिरादरी दशहरे का आनंद उठाती और सभी हिन्दू पूरे शिद्दत से ताजिया के दिन "या-हुसैन" बोलते थे.

फिर हम थोड़े बड़े हुए.और शहर आ गए.नुक्कड़ों पर उमा भारती के भड़कीले भाषण बजने लगे.रामायण के मर्यादापुरुषोत्तम राम की छवि "युधवीर" की होने लगी."कसम राम की खाते हैं हम मंदिर वहीं बनायेंगे" के कैसेट हर जगह बजने लगे.युग का विघटन आरम्भ हुआ और हुआ-6 दिसम्बर 1992 को देश का सबसे बड़ा सांस्कृतिक विध्वंस.एक दार्शनिक ने यहाँ तक कहा"निहत्थी ईमारत पर आघात देश का क्रूरतम अध्याय है.इससे सिर्फ ईमारत ही नहीं,बुद्ध और महात्मा की सामाजिक और सांस्कृतिक ईमारत भी ढह गयी."समाज बंट गया.नए हिन्दू मुस्लिम बच्चे एक दूसरे को नफरत की निगाह से देखने लगे.दोस्ती ख़तम हो गयी.अमन चला गया.दिलों में दीवार बन गयी.अयोध्या की आग आम आदमी तक पहुँची.गाँव की गली गली गरम हो गयी.जिस "शहीद बाबा" पर हम हिन्दू जाकर माथा टेकते थे अब वो पत्थर का रोड़ा नज़र आने लगा.ताजिया के चबूतरे को लोगों ने तोड़ डाला.अयोध्या में 2000 लोग मारे गए लेकिन लाखों रहमान मियां का खून हुआ."Integrity in diversity " और संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता तार-तार हो गयी.

रहमान मियां अब भी हैं.अब वो रहमान बाबा या रहमान भाई न होकर रहमान मियां हो गए.दरजी मोहल्ला न होकर "कटुआ" मोहल्ला हो गया.ओफ्फ्फ..

समय बदला.रंजिशों पर परदा पड़ा.भूमंडलीकरण के युग ने लोगों को नजदीक किया.अयोध्या का ऐतिहासिक फैसला आया.फैसला चाहे जो भी हो...आपसी रंजिशों की गुंजाइश न हो,हर तरफ अमन हो हम यहीं चाहते हैं.या यूँ कहें..

" शायर हूँ कोई ताजा गज़ल सोच रहा हूँ,

मस्जिद में पुजारी हो मंदिर में मौलवी,

हो किस तरह मुमकिन ये जतन सोच रहा हूँ। "

आओ सभी मिलकर कहें -

आमीन !!!!

1 टिप्पणी:

  1. भाई, रहमान मियां को मेरी भी रामराम कहना।
    ये वो अयोध्या वाला राम नहीं है। ये वो राम है जिसे हम आज भी अपने गांव में मुसलमान पडोसियों को कहते हैं- बाब्बा रामराम।
    और हमें जवाब मिलता है- रामराम बेट्टा। अल्लाह तुम्हे खुश रखे।
    और देखिये- अल्लाह की कृपा से हम खुश हैं।

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