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रविवार, अप्रैल 25, 2010

उजर बगुल बिना पीपरो न सोभे...

बरसों बाद शारदा सिन्हा के कुछ गाने सुने ..उजर बगुल बिना पीपरो न सोभे कोयल बिना बगिया न सोभे राजा...पटना से बैद बोलाईद हो नजरा गईलीं गुइंयाँ..और भी दो तीन... फिर सदा की तरह सोचने लगा..क्या इन गानों की कोई सार्थकता आज भी बची है?अब गाँव की गोरी भी मोडर्न हो गई है.कुछ हो न हो मोबाइल जरूर रहता है.फिर सास ससुर के साथ रहने की परंपरा धीरे धीरे ख़तम हो रही है.फिर इन विरह के गानों का औचित्य.ऊपर से भोजपुरी ...जिसके गानों का सत्यानाश करने में कुछ लोगों कसर नहीं छोड़ी है..अत्यंत फूहड़ किस्म..


फिर क्या हम इन धरोहर गानों को भुला दें और आज के धक् धक् संगीत पर थिरकें.क्या इनकी कोई उपयोगिता नहीं.बहुत सोचने के बाद लगा नहीं उपयोगिता तो है.शाब्दिक रूप तो कुछ नहीं किन्तु सांस्कृतिक रूप में बहुत कुछ है इन गानों में..ये गाने इतना तो जरूर कहते हैं कि कभी गाँव के पीपल के पेड़ पर बगुले रहा करते थे.आज भी गाँव जाता हूँ ..कुछ पीपल के पेड़ बचे भी हैं.लेकिन उनपर कोई बगुला नहीं रहता.पेड़ तो है किन्तु उसकी शोभा न जाने कहाँ चली गई.अब तो बाग़ ही नहीं तो फिर कोयल कहाँ होगी.आर्थिक विकास के इस दौर में वातावरण का विकास पिछड़ता जा रहा है.हम अपने में इतने मशगूल हो गए हैं कि इन पशु पक्षियों की तनिक भी चिंता हमें नहीं रही.हमें चिड़ियों का चहचहाना ,उनका कलरव शोर लगने लगा है.उनकी घरेलू उपस्थिति हमें गन्दगी का एहसास दिलाती है.

वो दिन दूर नहीं जब बगुला,गौरैया,कोयल इत्यादि तीतर की तरह प्रतिबंधित श्रेणी में आ जायेंगे.इसलिए हमें जागना होगा.इन पक्षियों फिर से स्नेहपूर्ण पनाह देनी होगी.फिर से बाग़ लगाने होंगे जिससे प्राकृतिक असंतुलन ज्यादा न हो.शुक्रिया शारदा सिन्हा जी के इस ऐतिहासिक धरोहर गानों का जिससे हम अपने बीते हुए समाज को जान पाते हैं.अपने वातावरण के बारे में थोडा सोच लेते हैं.आप भी सोचियेगा....